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जीवाजीवाधिकार
११३ साथ जिसप्रकार का तादात्म्यरूप सम्बन्ध है, जल के साथ दूध का उसप्रकार का सम्बन्ध न होने से निश्चय से जल दूध का नहीं है। वगाहलक्षणे संबंधे सत्यपि स्वलक्षणभूतोपयोगगुणव्याप्यतया सर्वद्रव्येभ्योऽधिकत्वेन प्रतीयमानत्वादग्नेरुष्णगुणेनेव सह तादात्म्यलक्षणसम्बन्धाभावात् न निश्चयेन वर्णादिपुद्गलपरिणामाः सन्ति ।।५६-५७॥ कथं तर्हि व्यवहारोऽविरोधक इति चेत् -
पंथे मुस्संतं पस्सिटूण लोमा भणंति क्वहारी।
मुस्सदि एसो पंथो ण य पंथो मुस्सदे कोई ।।५८।। इसीप्रकार वर्णादिरूप पुद्गलद्रव्य के परिणामों के साथ मिश्रित इस आत्मा का पुद्गलद्रव्य के साथ परस्पर अवगाहरूप सम्बन्ध होने पर भी स्वलक्षणभूत उपयोग गुण के द्वारा व्याप्त होने से आत्मा सर्व द्रव्यों से भिन्न प्रतीत होता है; इसलिए अग्नि का उष्णता के साथ जिसप्रकार का तादात्म्यरूप सम्बन्ध है, वर्णादिक के साथ आत्मा का उसप्रकार का सम्बन्ध नहीं है। इसलिए वर्णादिरूप पुद्गल के परिणाम निश्चय से आत्मा के नहीं हैं।"
आत्मख्याति के उक्त कथन में व्यवहारनय के विषय को पर्यायाश्रित और निश्चयनय के विषय को द्रव्याश्रित बताया गया है और साथ में यह भी कहा गया है कि पर्यायाश्रित होने से व्यवहारनय एक द्रव्य के भाव को दूसरे द्रव्य का कहता है तथा निश्चयनय एक द्रव्य के भाव को दूसरे का नहीं कहता, अपितु एक द्रव्य के भाव को दूसरे द्रव्य का कहने का निषेध करता है; वह तो केवल स्वाभाविक भावों का आलम्बन लेकर ही प्रवर्तित होता है।
उक्त नियम के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला गया है कि वर्ण से लेकर गुणस्थानपर्यन्त के सभी भाव व्यवहार से जीव के हैं और निश्चय से जीव के नहीं।
अब प्रश्न यह शेष रह जाता है कि वर्णादिभाव निश्चय से जीव के क्यों नहीं हैं ?
इसके समाधान के लिए दूध और पानी तथा अग्नि और उष्णता का उदाहरण देकर यह स्पष्ट किया है कि जिसप्रकार दूध और पानी का एकक्षेत्रावगाहरूप संयोग सम्बन्ध है; उसीप्रकार का आत्मा का वर्णादि के साथ एकक्षेत्रावगाहरूप संयोग सम्बन्ध है और इसीकारण उन्हें व्यवहार से जीव का कहा जाता है; किन्तु जीव और वर्णादि का अग्नि और उष्णता के समान तादात्म्यसम्बन्ध नहीं है; अत: उन्हें निश्चयनय से जीव का नहीं कहा जा सकता; क्योंकि जीव का तादात्म्यसम्बन्ध तो अपने ज्ञान-दर्शनरूप उपयोग गुण से है। इसलिए जीव अपने उपयोग गुण के कारण वर्णादिभावों से भिन्न ही भासित होता है और यही परमार्थ है।
इसप्रकार इन दो गाथाओं में यही स्पष्ट किया गया है कि ये २९ प्रकार के भाव व्यवहार से जीव के हैं और निश्चय से जीव के नहीं।
जब यह कहा जाता है कि ये भाव व्यवहार से जीव के हैं और निश्चय से जीव के नहीं; तब यह