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समयसार
वर्णादि को व्यवहार से ही कहा जाता जीव के । परमार्थ से ये भाव भी होते नहीं हैं जीव के ।। ५६ ।। एतैश्च सम्बन्धो यथैव क्षीरोदकं ज्ञातव्यः । न च भवंति तस्य तानि तूपयोगगुणाधिको यस्मात् ।। ५७ ।।
इह हि व्यवहारनयः किल पर्यायाश्रितत्वाज्जीवस्य पुद्गलसंयोगवशादनादिप्रसिद्धबंधपर्यायस्य कुसुम्भरक्तस्य कार्पासिकवासस इवौपाधिकं भावमवलंब्योत्प्लवमानः परभावं परस्य विदधाति । निश्चयनयस्तु द्रव्याश्रितत्वात्केवलस्य जीवस्य स्वाभाविकं भावमवलंब्योत्प्लवमानः परभावं परस्य सर्वमेव प्रतिषेधयति ।
ततो व्यवहारेण वर्णादयो गुणस्थानान्ता भावा जीवस्य सन्ति निश्चयेन तु न सन्तीति युक्ता प्रज्ञप्ति: ।
कुतो जीव वर्णादयो निश्चयेन न संतीति चेत् - यथा खलु सलिलमिश्रितस्य क्षीरस्य सलिलेन सह परस्परावगाहलक्षणे संबंधे सत्यपि स्वलक्षणभूत क्षीरत्वगुणव्याप्यतया सलिलादधिकत्वेन प्रतीयमानत्वादग्नेरुष्णगुणेनेव सह तादात्म्यलक्षणसंबंधाभावात् न निश्चयेन सलिलमस्ति, तथा वर्णादिपुद्गलद्रव्यपरिणाममिश्रितस्यास्यात्मन: पुद्गलद्रव्येण सह परस्परादूध - पानी की तरह सम्बन्ध इनका जानना । उपयोगमय इस जीव के परमार्थ से ये हैं नहीं ।।५७ ॥
ये वर्णादि से लेकर गुणस्थान पर्यन्त जो भाव कहे हैं, वे व्यवहारनय से तो जीव के हैं; किन्तु निश्चयनय से उनमें से कोई भी जीव के नहीं हैं।
यद्यपि इन वर्णादिक भावों के साथ जीव का दूध और पानी की तरह एक क्षेत्रावगाहरूप संयोग सम्बन्ध है; तथापि वे जीव के नहीं हैं; क्योंकि जीव उनसे उपयोग गुण से अधिक है ऐसा जानना चाहिए।
उक्त गाथाओं का भाव स्पष्ट करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं
"सफेद रुई से बने हुए एवं कुसुम्बी (लाल) रंग से रंगे हुए वस्त्र के लाल रंगरूप औपाधिक भावों की भाँति पुद्गल के संयोगवश अनादिकाल से जिसकी बंधपर्याय प्रसिद्ध है - ऐसे जीव के औपाधिक भावों का अवलम्बन लेकर प्रवर्तित होता हुआ व्यवहारनय पर्यायाश्रित होने से दूसरे के भाव को दूसरे का कहता है और निश्चयनय द्रव्याश्रित होने से केवल एक जीव के स्वाभाविक भावों का अवलम्बन लेकर प्रवर्तित होता हुआ दूसरे के भाव को किंचित्मात्र भी दूसरे का नहीं कहता अर्थात् दूसरे के भाव को दूसरे का कहने का निषेध करता है।
इसलिए वर्ण से लेकर गुणस्थान पर्यन्त जो २९ प्रकार के भाव , वे व्यवहारनय से जीव के हैं और निश्चयनय से जीव के नहीं हैं - ऐसा कथन योग्य है।
यदि कोई कहे कि वर्णादिक जीव के क्यों नहीं हैं तो उससे कहते हैं कि जिसप्रकार जलमिश्रित दूध का जल के साथ परस्पर अवगाहरूप सम्बन्ध होने पर भी स्वलक्षणभूत दुग्धत्वगुण के द्वारा व्याप्त होने से दूध जल से भिन्न प्रतीत होता है; इसलिए अग्नि का उष्णता के