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________________ जीवाजीवाधिकार आत्मानमजानंतो मूढास्तु परात्मवादिनः केचित् । जीवमध्यवसानं कर्म च तथा प्ररूपयन्ति ।।३९।। अपरेऽध्यवसानेषु तीव्रमंदानुभागगं जीवम् । मन्यते तथाऽपरे नोकर्म चापि जीव इति ।।४०।। कर्मण उदयं जीवमपरे कर्मानुभागमिच्छति । तीव्रत्वमंदत्वगुणाभ्यां यः स भवति जीवः ।।४१।। जीवकर्मोभयं द्वे अपि खलु केचिच्जीवमिच्छति । अपरे संयोगेन तु कर्मणां जीवमिच्छति ।।४२।। एवंविधा बहुविधाः परमात्मानं वदंति दुर्मेधसः। ते न परमार्थवादिनः निश्चयवादिभिर्निर्दिष्टाः ।।४३।। इह खलु तदसाधारणलक्षणाकलनात्क्लीबत्वेनात्यंतविमूढाः संतस्तात्त्विकमात्मानमजानंतो बहवो बहुधा परमप्यात्मानमिति प्रलपंति। नैसर्गिकरागद्वेषकल्माषितमध्यवसानमेव जीवस्तथाविधाध्यवसानात् अंगारस्येव काष्ादतिरिक्तत्वेनान्यस्यानुपलभ्यमानत्वादिति केचित् । आत्मा को नहीं जाननेवाले पर को ही आत्मा माननेवाले कई मूढ़ लोग तो अध्यवसान को और कर्म को जीव कहते हैं। अन्य कोई लोग तीव्र-मन्द अनुभागगत अध्यवसानों को जीव मानते हैं; दूसरे कोई नोकर्म को जीव मानते हैं। अन्य कोई कर्म के उदय को जीव मानते हैं और कोई तीव्र-मंदतारूप गुणों से भेद को प्राप्त कर्म के अनुभाग को जीव इच्छते हैं, मानते हैं। अन्य कोई जीव और कर्म - दोनों के मिले रूप को जीव मानते हैं और कोई अन्य कर्म के संयोग को ही जीव मानते हैं। इसप्रकार के तथा अन्य भी अनेकप्रकार के दुर्बुद्धि, मिथ्यादृष्टि जीव पर को आत्मा कहते हैं। वे सभी परमार्थवादी, सत्यार्थवादी, सत्य बोलनेवाले नहीं हैं - ऐसा निश्चयवादियों ने, सत्यार्थवादियों ने, सत्य बोलनेवालों ने कहा है। तात्पर्य यह है कि अध्यवसान, कर्म (भावकर्म), अध्यवसानसन्तति, शरीर, शुभाशुभभाव, सुख-दुःखादि कर्मविपाक, आत्मकर्मोभय और कर्मसंयोग को जीव कहनेवाले परमार्थवादी नहीं हैं; क्योंकि इनमें से कोई भी जीव नहीं है। समयसार की इन ३९ से ४३ तक की गाथाओं का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है “इस लोक में आत्मा का असाधारण लक्षण न जानने के कारण नपुंसकता से, पुरुषार्थहीनता से अत्यन्त विमूढ़ होते हुए, तात्त्विक आत्मा को न जाननेवाले बहुत से अज्ञानीजन अनेक प्रकार से पर को ही आत्मा कहते हैं, बकते हैं। उनमें कुछ मुख्य इसप्रकार हैं - (१) कोई तो ऐसा कहते हैं कि नैसर्गिक (स्वयं से ही उत्पन्न हुए स्वाभाविक) राग-द्वेष द्वारा मलिन अध्यवसान (मिथ्या-अभिप्राय सहित विभाव परिणाम) ही जीव है; क्योंकि जिसप्रकार कालेपन से भिन्न कोई कोयला दिखाई नहीं देता, उसीप्रकार अध्यवसान से भिन्न अन्य कोई आत्मा दिखाई नहीं देता।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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