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________________ समाधि और सल्लेखना आत्मानुभूति के साथ जीना जरूरी है। जो सर्वज्ञ स्वभावी आत्मा के आश्रय से ही संभव है। तत्त्वज्ञान के अभ्यास के बल पर जिनके जीवन में ऐसी समाधि होगी, उनका मरण भी नियम से समाधिपूर्वक ही होगा। एतदर्थ हमें अपने जीवन में जैनदर्शन के प्रमुख सिद्धान्तों का अध्ययन और उन्हीं की भावनाओं को बारम्बार नचाना, उनकी बारम्बार चिन्तन करना - अनुप्रेक्षा करना अत्यन्त आवश्यक है। तभी हम राग-द्वेष से मुक्त होकर निष्कषाय अवस्था को प्राप्त कर सकेंगे । वस्तुतः आधि-व्याधि व उपाधि से रहित आत्मा के निर्मल परिणामों का नाम ही समाधि है। पर ध्यान रहे, जिसने अपना जीवन रो-रोकर जिया हो, जिनको जीवनभर संक्लेश और अशान्ति रही हो, जिनका जीवन केवल आकुलता में ही हाय-हाय करते बीता हो, जिसने जीवन में कभी निराकुलता का अनुभव ही न किया हो, जिन्हें जीवनभर मुख्यरूप से आर्तध्यान व रौद्रध्यान ही रहा हो; उनका मरण कभी नहीं सुधर सकता; क्योंकि “जैसी मति वैसी गति।" आगम के अनुसार जिसका आयुबंध जिसप्रकार के संक्लेश या विशुद्ध परिणामों में होता है, उसका मरण भी वैसे ही परिणामों में होता है। अतः यहाँ ऐसा कहा जायगा कि "जैसी गति वैसी मति'। जब तक आयुबंध नहीं हुआ तबतक मति अनुसार गति बंधती है और अगले भव की आयुबंध होने पर गति के अनुसार मति' होती है। अतः यदि कुगति में जाना पसंद न हो तो मति को सुमति बनाना एवं व्यवस्थित करना आवश्यक है, कुमति कुगति का कारण बनती है और सुमति से सुगति की प्राप्ति होती है। जिन्हें सन्यास व समाधि की भावना होती है, निश्चित ही उन्हें शुभ समाधि और सल्लेखना आयु एवं शुभगति का ही बंध हुआ है या होनेवाला है। अन्यथा उनके ऐसे उत्तम विचार ही नहीं होते। कहा भी है - तादृशी जायते बुद्धि, व्यवसायोऽपि तादृशः। सहायस्तादृशाः सन्ति, यादृशी भवितव्यता ।। बुद्धि, व्यवसाय और सहायक कारण कलाप सभी समवाय एक होनहार का ही अनुशरण करते हैं। मोही जीवों को तो मृत्यु इष्टवियोग का कारण होने से दुःखद ही अनुभव होती है। भला मोही जीव इस अन्तहीन वियोग की निमित्तभूत दुःखद मृत्यु को महोत्सव का रूप कैसे दे सकते हैं? नहीं दे सकते। अतः हमें मरण सुधारने के बजाय जीवन सुधारने का प्रयत्न करना होगा। मृत्यु को अमृत महोत्सव बनाने वाला मरणोन्मुख व्यक्ति तो जीवनभर के तत्त्वाभ्यास के बल पर मानसिकरूप से अपने आत्मा के अजर-अमर-अनादि-अनंत, नित्यविज्ञान घन व अतीन्द्रिय आनन्द स्वरूप के चिन्तन-मनन द्वारा देह से देहान्तर होने की क्रिया को सहज भाव से स्वीकार करके चिर विदाई के लिए तैयार होता है। साथ ही चिर विदाई देने वाले कुटुम्ब-परिवार के विवेकी व्यक्ति भी बाहर से वैसा ही वैराग्यप्रद वातावरण बनाते हैं तब कहीं वह मृत्यु अमृत महोत्सव बन पाती है। ___ कभी-कभी अज्ञानवश मोह में मूर्छित हो परिजन-पुरजन अपने प्रियजनों को मरणासन्न देखकर या मरण की संभावना से भी रोने लगते हैं, इससे मरणासन्न व्यक्ति के परिणामों में संक्लेश होने की संभावना बढ़ जाती है अतः ऐसे वातावरण से समाधि साधक को दूर ही रखना होगा। शंका :- जब मृत्यु के समय कान में णमोकार मंत्र सुनने-सुनाने
SR No.008376
Book TitleSamadhi aur Sallekhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherDigambar Jain Vidwatparishad Trust
Publication Year2005
Total Pages23
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size100 KB
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