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समाधि और सल्लेखना
समाधि और सल्लेखना
दो-तीन प्रमुख सिद्धान्तों को समझना अति आवश्यक है। एक तो यह कि - भाग्य से अधिक और समय से पहले किसी को कभी कुछ नहीं मिलता और दूसरा यह कि - न तो हम किसी के सुख-दुःख के दाता हैं, भले-बुरे के कर्ता हैं और न कोई हमें भी सुख-दुःख दे सकता है, हमारा भला-बुरा कर सकता है।
अमितगति आचार्य ने कहा भी है - “परेणदत्तं यदि लभ्यतेस्फुटं, स्वयं कृतंकर्मनिरर्थकं तदा।।"
राजा सेवक पर कितना ही प्रसन्न क्यों न हो जाये; पर वह सेवक को उसके भाग्य से अधिक धन नहीं दे सकता। दिन-रात पानी क्यों न बरसे, तो भी ढाक की टहनी में तीन से अधिक पत्ते नहीं निकलते हैं।'
'वस्तु स्वातंत्र्य' का सिद्धान्त जैनदर्शन का प्राण है। इसके अनुसार 'जगत में पुद्गल का प्रत्येक परमाणु और प्रत्येक द्रव्य (पदार्थ) स्वतंत्ररूप से परिणमनशील है, पूर्ण स्वावलम्बी है। दो द्रव्यों से मिलेजुले हुए कार्य के समस्त कथन निमित्त सापेक्ष हैं। अतः उनसे वस्तु स्वातंत्र्य का सिद्धान्त बाधित नहीं होता।
जब तक यह जीव वस्तुस्वातंत्र्य के इस सिद्धांत को नहीं समझेगा और अपने को पर का और पर को अपना कर्ता-धर्ता मानता रहेगा तबतक समता एवं समाधि का प्राप्त होना संभव नहीं है।
देखो, “लोक के प्रत्येक पदार्थ पूर्ण स्वतंत्र और स्वावलम्बी हैं। कोई भी द्रव्य किसी परद्रव्य के आधीन नहीं है। एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कर्ता-भोक्ता भी नहीं है।" ऐसी श्रद्धा एवं समझ से ही समता आती है, कषायें कम होती है, राग-द्वेष का अभाव होता है। बस, इसीप्रकार १. तुष्टो हि राजा यदि सेवकेभ्यः, भाग्यात् परं नैव ददाति किंचित् ।
अहिर्निशिं वर्षति वारिवाह तथापि पत्र त्रितयः पलाशः ।।
के श्रद्धान-ज्ञान व आचरण से आत्मा निष्कषाय होकर समाधिमय जीवन जी सकता है।
यहाँ कोई व्यक्ति समाधि की चर्चा को मृत्यु से जोड़कर उसे अशुभ सूचक मानकर झुंझलाकर कह सकता है कि - समाधि... समाधि... समाधि...? अभी से इस समाधि की चर्चा का क्या काम? यह तो मरण समय धारण करने की वस्तु है न? अभी तो इसकी चर्चा शादी के प्रसंग पर मौत की ध्वनि बजाने जैसी अपशकुन की बात है न?
समाधान - भाई! समाधि व समाधिमरण-दोनों बिल्कुल अलगअलग विषय हैं। समाधि तो जीवन जीने की कला है उसे मरण से न जोड़ा जाय । मरते समय तो समाधिरूप वृक्ष के निष्कषायरूप फल खाये जाते हैं; एतदर्थ समाधि रूप वृक्ष का बीज तो अभी बोना होगा। तभी मरण समय निष्कषायरूप फल प्राप्त हो सकेगा। कहा भी है -
"दर्शन-ज्ञान-चारित्र को, प्रीति सहित अपनाय।
च्युत न होय स्वभाव से, वह समाधि फल पाय।। समाधि तो साम्यभावों से निराकुलता से जीवन जीने की कला है, उससे मरण का क्या सम्बन्ध? हाँ, जिसका जीवन समाधिमय होता है, उसका मरण भी समाधिमय हो जाता है; मरण की चर्चा तो मात्र सजग व सावधान करने के लिए, शेष जीवन को सफल बनाने के लिए, संवेग भावना जगाने के लिए बीच-बीच में आ जाती है। सो उसमें भी अपशकुन जैसा कुछ नहीं है।
भाई मौत की चर्चा अपशकुन नहीं है, बल्कि उसे अपशकुन मानना अपशकुन है। हमें इस खरगोश वाली वृत्ति को छोड़ना ही होगा, जो मौत को सामने खड़ा देख अपने कानों से आँखें ढंक लेता है और स्वयं को सुरक्षित समझ लेता है। जगत में जितने भी जीव जन्म लेते हैं, वे सभी मरते तो हैं ही; परन्तु सभी जीवों की मृत्यु को महोत्सव की संज्ञा नहीं दी जा सकती, उनके मरण को समाधिमरण नहीं कहा जा सकता।
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