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प्रकाशकीय श्री अ.भा. दि. जैन विद्वत्परिषद् ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित होनेवाली पुस्तकों की श्रृंखला में 'समाधि-साधना और सिद्धि' का यह द्वितीय संशोधित और संबर्द्धित संस्करण है। इस कृति को अधिक उपयोगी और प्रभावी बनाने हेतु लेखक द्वारा ‘मंगलायतन' के सल्लेखना सम्बन्धी विशेषांकों का उपयोग किया गया है, जिससे यह कृति और भी अधिक उपयोगी बन गई है।
सिद्धान्त चक्रवर्ती आ. श्री विद्यानन्दजी की प्रेरणा से जब विद्वत् परिषद् ट्रस्ट द्वारा सत्साहित्य प्रकाशन का निर्णय लिया तो सभी सदस्यों को सामायिक निर्णय बहुत अच्छा लगा। इस निर्णय से एक लाभ तो यह होगा कि विद्वत्परिषद् के रचनात्मक कार्य को बल मिलेगा और दूसरा सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि समाज को सस्ती दरों पर श्रेष्ठ साहित्य मिलेगा।
ट्रस्ट के माध्यम से अब तक १. अध्यात्म बारहखड़ी, २. मंगलतीर्थ यात्रा, ३. चतुरचितारणी, ४. इष्टोपदेश, ५. ज्ञानामृत, ६. क्षत्रचूड़ामणि परिशीलन, ७. जैन जाति नहीं धर्म है, ८. श्रावकाचार : दिशा और दृष्टि, ९. शुद्धोपयोग विवेचन, १०. बसंत तिलका, ११. क्षत्रचूड़ामणि तथा १२. प्रतिबोध, १३. समाधि-साधना और सिद्धि तथा १४. छहढाला का सार जैसी चौदह पुस्तकों का प्रकाशन हो चुका है। जिन्हें समाज में देकर हम गौरवान्वित हैं। ____ अनेक पुस्तकों के लोकप्रिय लेखक सिद्धान्तसूरि विद्वत्वर्य पण्डित श्री रतनचन्दजी भारिल्ल की यह कृति समाधि-साधना और सिद्धि अब नये रूप में समाधि और सल्लेखना के नाम से प्रस्तुत है। आशा है इस कृति के माध्यम से आप सभी समाधि और सल्लेखना के वास्तविक अर्थ को समझेंगे और इसे जीवन में अपना कर आत्मकल्याण का मार्ग प्रशस्त करेंगे।
- अखिल बंसल संयोजक, साहित्यप्रकाशन समिति, श्री अ.भा.दि. जैन वि.प. ट्रस्ट
समाधि और सल्लेखना सन्यास और समाधि है जीना सिखाने की कला। बोधि-समाधि साधना शिवपंथ पाने की कला ।। सल्लेखना कमजोर करती काय और कषाय को। निर्भीक और नि:शंक कर उत्सव बनाती मृत्यु को।।
मरण और समाधिमरण - दोनों मानव के अन्तकाल (परलोक गमन) की बिल्कुल भिन्न-भिन्न स्थितियाँ हैं। यदि एक पूर्व हैं तो दूसरी पश्चिम, एक अनन्त दुःखमय और दुःखद है तो दूसरी असीम सुखमय व सुखद । मरण की दुःखद स्थिति से सारा जगत सु-परिचित तो है ही, भुक्त-भोगी भी है। पर समाधिमरण की सुखानुभूति का सौभाग्य विरलों को ही मिलता है, मिल पाता है। ___ आत्मा की अमरता से अनभिज्ञ अज्ञजनों की दृष्टि में 'मरण' सर्वाधिक दुःखद, अप्रिय, अनिष्ट व अशुभ प्रसंग के रूप में ही मान्य रहा है। उनके लिए 'मरण' एक ऐसी अनहोनी अघट घटना है, जिसकी कल्पना मात्र से अज्ञानियों का कलेजा काँपने लगता है, कण्ठ अवरुद्ध हो जाता है, हाथ-पाँव फूलने लगते हैं। उन्हें ऐसा लगने लगता है मानो उन पर कोई ऐसा अप्रत्याशित-अकस्मात अनभ्र वज्रपात होनेवाला है जो उनका सर्वनाश कर देगा, उन्हें नेस्त-नाबूत कर देगा, उनका अस्तित्व ही समाप्त कर देगा। समस्त सम्बन्ध और इष्ट संयोग अनन्तकाल के लिए वियोग में बदल जायेंगे। ऐसी स्थिति में उनका 'मरण' 'समाधिमरण' में परिणत कैसे हो सकता है? नहीं हो सकता।
जब चारित्रमोहवश या अन्तर्मुखी पुरुषार्थ की कमजोरी के कारण आत्मा की अमरता से सुपरिचित-सम्यग्दृष्टि-विज्ञजन भी ‘मरणभय' से पूर्णतया अप्रभावित नहीं रह पाते, उन्हें भी समय-समय पर इष्ट वियोग
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