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________________ समाधि और सल्लेखना २. पण्डित मरण :- यह मरण छठवें गणस्थानवर्ती मनिराजों के होता है। एकबार ऐसा मरण होने पर दो-तीन भव में ही मुक्ति हो जाती है। ३. बाल पण्डित मरण - यह मरण देशसंयमी के होता है। इस मरण के होने पर सोलहवें स्वर्ग की प्राप्ति हो सकती है। ४. बाल मरण :- यह मरण चतुर्थगुणस्थानवर्ती अविरत सम्यग्दृष्टि के होता है। इस मरण से प्रायः स्वर्ग की प्राप्ति होती है। ५. बाल-बाल मरण :- यह मरण मिथ्यादृष्टि के होता है। यह मरण करने वाले अपनी-अपनी लेश्या व कषाय के अनुसार चारों गतियों के पात्र होते हैं। पाँचवें बाल-बाल मरण को छोड़कर उक्त चारों ही मरण समाधिपूर्वक ही होते हैं, परन्तु स्वरूप की स्थिरता और परिणामों की विशुद्धता अपनी-अपनी योग्यतानुसार होती है। समाधिधारक यह विचार करता है कि - "जो दुःख मुझे अभी है, इससे भी अनंतगुणे दुःख मैंने इस जगत में अनन्तबार भोगे हैं, फिर भी आत्मा का कुछ भी नहीं बिगड़ा। अतः इस थोड़े से दुःख से क्या घबराना? यदि पीड़ा चिन्तन आर्तध्यान होगा तो फिर नये दुःख के बीज पड़ जायेंगे। अतः इस पीड़ा पर से अपना उपयोग हटाते हुए संकल्प करें कि - "मैं अपने उपयोग को पीड़ा से हटाता हूँ।" इस संकल्प से पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा तो होगी ही, नवीन कर्मों का बंध भी नहीं होगा। जो असाता कर्म के उदय में दुःख आया है, उसे सहना तो पड़ेगा ही, यदि समतापूर्वक सह लेंगे और तत्त्वज्ञान के बल पर संक्लेश परिणामों से बचे रहेंगे तथा आत्मा की आराधना में लगे रहेंगे तो दुःख के कारणभूत सभी संचित कर्म क्षीण हो जायेंगे। हम चाहे निर्भय रहें या भयभीत, रोगों का उपचार करें या न करें, जो प्रबलकर्म उदय में आयेंगे, वे तो फल देंगे ही। उपचार भी कर्म के समाधि और सल्लेखना मंदोदय में ही अपना असर दिखा सकेगा। जबतक असाता का तीव्र उदय रहता है, तबतक औषधि निमित्त रूप से भी कार्यकारी नहीं होती। अन्यथा बड़े-बड़े वैद्य डाक्टर, राजा-महाराजा तो कभी बीमार ही नहीं पड़ते; क्योंकि उनके पास साधनों की क्या कमी? अतः स्पष्ट है कि होनहार के आगे किसी का वश नहीं चलता। - ऐसा मानकर आये दुःख को समताभाव से सहते हुए सबके ज्ञाता-दृष्टा बनने का प्रयास करना ही योग्य है। ऐसा करने से ही मैं अपने मरण को समाधिमरण में परिणत कर सकता हूँ। आचार्य कहते हैं कि - यदि असह्य वेदना हो रही हो और उपयोग आत्मध्यान में न लगता हो, मरण समय हो तो ऐसा विचार करें कि - "कोई कितने ही प्रयत्न क्यों न करे, पर होनहार को कोई टाल नहीं सकता। जो सुख-दुःख, जीवन-मरण जिस समय होना है, वह तो होकर ही रहता है। ____ कार्तिकानुप्रेक्षा में स्पष्ट लिखा है कि - “साधारण मनुष्य तो क्या, असीम शक्ति सम्पन्न इन्द्र व अनन्त बल के धनी जिनेन्द्र भी स्व-समय में होनेवाली सुख-दुःख व जीवन-मरण पर्यायों को नहीं पलट सकते।" ऐसे विचारों से सहज समता आती है और राग-द्वेष कम होकर मरण समाधिमरण में परिणत हो जाता है। प्रश्न :- गुरुदेव श्री कानजीस्वामी से किसी ने पूछा - “पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा तो अशरण भावना में शुद्धात्मा और पंचपरमेष्ठी - दोनों को शरणभूत करते हैं। आप पण्डित जयचन्दजी को तो समयसार के टीकाकार के रूप में बहुत श्रद्धापूर्वक स्मरण करते हो, फिर भी आप अकेले आत्मा को ही शरण क्यों कहते हैं? कथंञ्चित् भगवान का स्मरण भी शरण है - ऐसा कहो न? उत्तर :- भाई, निश्चय से तो ज्ञानानन्दस्वरूप शुद्ध आत्मा ही 15
SR No.008376
Book TitleSamadhi aur Sallekhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherDigambar Jain Vidwatparishad Trust
Publication Year2005
Total Pages23
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size100 KB
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