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REFFEE IFE 19
। सामान्यत: मद्य-मांस-मधु और पाँचों उदुम्बर फलों का त्याग ही अष्ट मूलगुण है। मूलगुण अर्थात् मुख्यगुण, जिनके धारण किये बिना श्रावकपना ही संभव न हो। जिसप्रकार मूल (जड़) के बिना वृक्ष का खड़ा रहना संभव नहीं है, उसीप्रकार मूलगुणों के बिना, श्रावकपना भी सम्भव नहीं है।
ये मुख्यरूप से आठ हैं, अत: इन्हें अष्ट मूलगुण कहते हैं। मद्य-मांस-मधु व पाँच उदुम्बर फलों का | सेवन महा दुःखदायक और असीमित पापों का घर है अर्थात् इनके खाने-पीने से महा पाप उत्पन्न होता है; अत: इनका त्याग करके निर्मलबुद्धि को प्राप्त श्रावक ही जैनधर्म के उपदेश का पात्र होता है।
पहले इनका त्याग करे, तभी व्यक्ति धर्मोपदेश को ग्रहण कर सकता है; यद्यपि अष्ट मूलगुणों का कथन सर्वत्र चारित्र के प्रकरण में आया है; परन्तु जहाँ-तहाँ भी मूलगुणों का वर्णन आया है, वहाँ यह अभिप्राय अवश्य प्रगट किया है कि जो जीव हिंसा का त्याग करना चाहते हैं, उन्हें सर्वप्रथम मद्य-मांस-मधु एवं पंच उदुम्बर फलों को छोड़ देना चाहिए।
इससे यह अत्यन्त स्पष्ट है कि प्रत्येक अहिंसाप्रेमी जैन को सबसे पहले अर्थात् सम्यग्दर्शन के भी पहले मूलगुणों का धारण करना और सप्त व्यसनों का त्याग करना अनिवार्य है। इसके बिना तो सम्यग्दर्शन होना भी संभव नहीं है।" ___"प्रभो ! सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हेतु मुलगुणों का जानना यदि इतना महत्त्वपूर्ण है तो इन्हें भी विस्तार से बताइए?"
हाँ, हाँ, सुनो! श्रावकधर्म के आधारभूत मुख्यगुणों को मूलगुण कहते हैं। मूलगुणों में मद्य-मांस-मधु व पाँच उदुम्बर फलों का त्याग - ये आठ तो हैं ही, इनके अतिरिक्त हिंसा के आयतन होने से पाँचों पाप, सातों व्यसन एवं रात्रिभोजन का स्थूल त्याग तथा अनछने पानी का उपयोग न करना भी सम्मिलित हैं।
दिव्यध्वनि में आया - दिव्यध्वनि में आया - मूलगुणों के संदर्भ में भविष्य में जिनागम में कुछ महत्त्वपूर्ण || उल्लेख इसप्रकार होंगे -