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आ गये । दीक्षाकल्याणक के समय होनेवाली समस्त क्रियायें करके वैरागी अजितनाथ को सुप्रभा नामक पालकी में बैठाकर वन की ओर ले गये।
उनकी पालकी को सर्वप्रथम मनुष्यों ने, फिर विद्याधरों ने और फिर देवों ने उठाया था। माघमास के शुक्लपक्ष की नवमी के दिन सप्तपर्ण वृक्ष के समीप जाकर संयम धारण कर लिया। एक हजार अन्य राजा || भी संसार-शरीर और भोगों से विरक्त होकर उनके साथ दीक्षित हो गये।
दीक्षा लेते ही उन्हें मन:पर्ययज्ञान हो गया। कुछ दिन बाद आहार हेतु साकेत नगरी में गये। वहाँ ब्रह्मानामक राजा ने विधिवत् उनका पड़गाहन कर उन्हें आहारदान दिया। मुनिराज अजितनाथ के आहारदान से राजा को ऐसा पुण्य लाभ मिला कि उनके घर उसीसमय पंचाश्चर्य हुए। | मुनिराज ने आत्मा की साधना करते हुए बारह वर्ष छद्मस्थ अवस्था में बिताये। तदनन्तर पौष शुक्ल एकादशी के दिन चार घातिया कर्मों का क्षयकर पूर्ण वीतरागी और सर्वज्ञ बन गये अर्थात् सर्वज्ञता प्रगट कर वे आप्त (अरहंतदेव) हो गये। उनके सिंहसेन आदि नब्बे गणधर थे। तीन हजार सात सौ पचास पूर्वधारी मुनिराज, इक्कीस हजार छह सौ उपाध्याय, नौ हजार चार सौ अवधिज्ञानी मुनि, बीस हजार केवलज्ञानी, बीस हजार चार सौ विक्रियाऋद्धिधारी, बारह हजार चार सौ मन:पर्ययज्ञानी और बारह हजार चार सौ | अनुत्तरवादी मुनि थे। इसप्रकार सब मिलाकर एकलाख तपस्वी थे। तीन लाख बीस हजार आर्यिकायें, तीन लाख श्रावक, पाँच लाख श्राविकायें और असंख्यात देव-देवियाँ उनकी धर्मसभा (समोशरण) में श्रोता थे।
इसप्रकार बारह सभाओं से वेष्टित तीर्थंकर भगवान अजितनाथ स्वामी की दिव्यध्वनि खिरती थी। जिसमें रत्नत्रय रूप मोक्षमार्ग का निरूपण तो होता ही था। जिज्ञासुओं की शंकाओं के समाधान भी सहज हो जाते थे।
एक श्रोता को प्रश्न हुआ। “प्रभो ! सामान्य श्रावक की मोक्षमार्ग में प्राथमिक भूमिका क्या है ? || मोक्ष-महल की प्रथम सीढ़ी रूप सम्यग्दर्शन को प्राप्त करने के लिए श्रावक की पात्रता कैसी होती है ?" ||