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________________ पोषत तो दुःख दोष करै अति, शोषत सुख उपजावे । दुर्जन देह स्वभाव बराबर, मूरख प्रीति बढ़ावे ।।१०।। भोग बुरे भवरोग बढ़ावें, बैरी हैं जग जीके । बेरस होंय विपाक समय अति, सेवत लागे नीके।। बज्र अग्नि विष से विषधर से, ये अधिके दुःखदाई। धर्म रतन के चोर प्रबल अति, दुर्गतिपन्थ सहाई।।११।। मोह उदय यह जीव अज्ञानी, भोग भले करे जानें। ज्यों कोई जन खाय धतूरा, सो सब कंचन मानें ।। ज्यों-ज्यों भोगसंजोग मनोहर, मनवांछित जन पावे। तृष्णानागिन त्यों-त्यों डंके, लहर जहर की आवे ।।१२।। मैं चक्री पद पाय निरन्तर, भोग भोग घनेरे । तो भी तनिक भये नहिं पूरन, भोग मनोरथ मेरे ।। राज समाज महा अघ कारण वैर बढ़ावनहारा । वेश्या सम लक्ष्मी अति चंचल याका कौन पत्यारा ।।१३।। मोह महारिपु वैर विचार्यो, जगजिय संकट डारे । तन काराग्रह बनिता बेड़ी, परिजन जन रखवारे ।। सम्यकदर्शन ज्ञान चरन तप, ये जियके हितकारी। ये ही सार असार और सब, यह चक्री चितधारी ।।१४।। छोड़े चौदह रत्न नवोनिधि, अरु छोड़े संग साथी। कोटि अठारह घोड़े छोड़े, चौरासी लख हाथी ।। FEPS TO E FFE
SR No.008374
Book TitleSalaka Purush Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2004
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size765 KB
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