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________________ २८ ९६ रोग रचकर उसे आनन्द का मंदिर न बना कर व्याधियों और व्यथा का घर क्यों बना दिया ? श ला का इतने सुन्दर रंग-बिरंगे सुगन्धित पुष्पों से भरे बाग-बगीचे बनाये तो उन्हें कांटों और कीट-पतंगों से | क्यों भर दिया ? चन्दन के सुगन्धित पेड़ बनाये तो उन्हें विषधर नागों से क्यों लपेट दिया ? सेवाभावी सर्वांग सुन्दर नारियाँ बनाईं तो उन्हें अबला क्यों बना दिया ? साथ ही उनमें मायाचार का मीठा जहर क्यों भर दिया ? धन-धान्य बनाये तो उनके चोर-लुटेरे और अतिवृष्टि - अनावृष्टि इत्यादि बर्बादी के साधन क्यों रच डाले ? पाँचों इन्द्रियों के सुहावने विषय बनायें तो उनके उपभोग को पापों से क्यों भर दिया ? पु रु ष वि श्व हो सकता है आपका कोई अन्धभक्त आपके इन कृत्यों को 'प्रभुलीला' कहकर समाधान कर ले; पर आपकी यह ऐसी कैसी लीला है जो दूसरों की जानलेवा और प्राणपीड़ा की कारण हो ? आपकी शरण में आकर आपका भक्त आपको 'संकट मोचक' जैसी उपाधियों से अलंकृत करे, फिर भी वह संकट से मुक्त न हो । भला ऐसा क्यों होता है ? प्रभु! ये कुछ अनुत्तरित प्रश्न हैं, अतः कुछ समझ में नहीं आता... । प्रभु ! आपकी ओर से आपका कोई भक्त यह दलील भी दे सकता है कि किसी की सुगति या कुगति व्य का निर्धारण ईश्वर अपनी मर्जी से नहीं, बल्कि उसके पुण्य-पाप या अच्छे-बुरे कार्यों के आधार से करता है; परन्तु उन्हें पुण्य-पाप करने के, अच्छे-बुरे कर्म करने के प्रेरक तो आप ही हैं न ? मैंने कहीं पढ़ा था कि "ईश्वरः प्रेरितो गच्छेत् स्वर्गं वा श्वभ्रमेव वा” अर्थात् प्राणी स्वर्ग अथवा नरक भी ईश्वर की प्रेरणा से ही जाते हैं। व सिंहादिक पशुओं के अलावा आज अधिकांश मानव भी मांसाहारी, शराबी, कबाबी, क्रोधी, लोभी और हिंसक प्रवृत्ति के दिखाई देते हैं। यदि उनसे कुछ कहो तो उत्तर मिलता है कि ईश्वर ने ये सब सुन्दर वस्तुएँ हमारे भोग-विलास और ऐशोआराम के लिए ही तो बनाई हैं, फिर हम इनका उपभोग क्यों न करें? क्या सचमुच आपने ये रंग-बिरंगी मछलियाँ, मुर्गे- मुर्गियाँ, बकरे-बकरियाँ, गाय-भैंस जैसे घास-फूस पर जीनेवाले भोले-भाले प्राणी इस मानव जाति के खाने के लिए ही बनाये हैं ? नन्हीं-मुन्नी बालिकायें; षोडसी कुंवारी कन्याएँ क्या सचमुच आपने बलात्कार करने के लिए बनाई हैं ? इन्हें तड़फता, रोता स्था ए वं ल क र सर्ग
SR No.008374
Book TitleSalaka Purush Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2004
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size765 KB
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