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________________ SRE युद्ध आदि में हारकर तो सभी राजाओं को बाध्य होकर राज्यसत्ता छोड़नी पड़ती है, परन्तु निर्मोही बाहुबली तीनों प्रकार के युद्धों में विजय प्राप्त करने के बावजूद भी राज्यसत्ता को तिलांजलि दे दी। जब भरतेश्वर ने क्रोध के वशीभूत होकर बाहुबली पर चक्ररत्न चलाया और वह चक्ररत्न भी बाहुबली की प्रदक्षिणा देकर वापिस लौट गया तो बाहुबली को संसार की असारता का बोध हो गया और उन्होंने भोगों | को भुजंग समान जहरीला जानकर राज्यसत्ता से ही मुँह मोड़ लिया। जीतकर भी राज्यसत्ता से मुँह मोड़ने में जैसी निस्पृहता की भावाभिव्यक्ति होती है, वैसी विजित होने | पर नहीं होती। उस स्थिति में तो मजबूरी प्रतीत होती है बाहुबली का त्याग मजबूरी का नहीं, अपितु वैराग्य का प्रतीक था। उनका त्याग असीम आत्मबल का प्रतीक था, स्वाभिमान और धीरोदात्तता का प्रतिफल था। ऐसा त्यागी, तपस्वी, निस्पृही और दृढ़संकल्पी व्यक्तित्व तो श्रेयस्कर है ही, हमारे लिए उनका अनुकरणीय आदर्श यह है कि इस लौकिक जीत-हार में हर्ष-विषाद करना सर्वथा निरर्थक है। इसप्रकार बाहुबली ने अपनी भूल का अहसास कर अपने मन में भरत के प्रति सहानुभूति अनुभव की। बाहुबली संसार से उदास होकर सोचते हैं - "यह लक्ष्मी स्वयं एकप्रकार का बन्धन है और कर्मबन्ध का कारण है। अत: आत्मार्थी पुरुषों के लिए यह उपादेय नहीं है। यद्यपि मेरे पुण्योदय से यह फलवती है, परन्तु पुण्य क्षीण होते ही कहाँ विलीन हो जाती है, पता ही नहीं चलता। इसीकारण इसका एक नाम चंचला भी है - कहा भी है किसी कवि ने - राज समाज महा अघ कारण, बैर बढ़ावन हारा। वैश्या सम लक्ष्मी अति चंचल, याको कौन पत्यारा ।। अत: यह कंटकाकीर्ण राज्यलक्ष्मी हमारे लिए विष के कांटों के समान सर्वथा त्याज्य है।" भरतजी को लक्ष्य कर कहते हैं - "मैं क्रोधावेश में आकर विनय से च्युत हो गया था, मैंने आपकी विनय नहीं करके सामना किया, अत: मैं अपराधी हूँ और इसके लिए क्षमाप्रार्थी हूँ।" W_ncy | E FEE १४
SR No.008374
Book TitleSalaka Purush Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2004
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size765 KB
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