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| हो जायेगा।" यह बात भरतजी को पसंद नहीं थी; इसकारण वे नहीं चाहते थे कि बाहुबली भी दीक्षित हो। अत: उन्होंने तीनों शारीरिक युद्धों में स्वयं की पराजय स्वीकार कर ली, फिर भी होनहार के अनुसार बाहुबली तो वैरागी हो ही गये। | भरत-बाहुबली के तीनों शारीरिक युद्धों के संदर्भ में कवि रत्नाकर ने एक महत्वपूर्ण प्रश्न उपस्थित किया है। उनका प्रश्न यह है कि भरतजी बाहुबली से पराजित कैसे हो सकते हैं? आगम में स्पष्ट उल्लेख है कि 'एक चक्रवर्ती में इतना शारीरिक बल होता है कि छह खण्ड के सम्पूर्ण राजाओं का शारीरिक बल मिल | कर भी चक्रवर्ती के बल की बराबरी नहीं कर सकता। बाहुबली भी उन्हीं छहखण्ड के राजाओं में एक
थे, फिर भला वे चक्रवर्ती भरत को पराजित कैसे कर सकते थे? फिर भी उन्हें आगम में पराजित क्यों दिखाया गया है? इसका कारण क्या?
यह एक ज्वलन्त प्रश्न है, जटिल समस्या है? इसके समाधान में कवि रत्नाकर स्वयं लिखते हैं कि - || “यद्यपि भरतजी की पराजय जग जाहिर है; परन्तु उसके पीछे रहस्य क्या है? यह एक विचारणीय विषय है।
कवि रत्नाकर के मतानुसार यथार्थ बात यह थी कि - "भरतजी की पराजय का कारण उनके शारीरिक बल की कमी नहीं, बल्कि बाहुबली के प्रति अनन्य स्नेह था। भरतजी के हृदय में अग्रज होने के नाते बाहुबली के प्रति प्रगाढ़ स्नेह था। अतः भरतजी ने पहले तो दक्षिणांक जैसे चतुर दूत को भेजकर अपने पास बुलाना चाहा । दक्षिणांक ने भी उन्हें भरतजी से मिलाने हेतु अथक प्रयास किए; किन्तु कविरत्नाकर के अनुसार बाहुबली ने पहले तो कार्य की व्यस्तता बताकर भरतजी से मिलने की असमर्थता प्रगट की। दक्षिणांक के बहुत आग्रह करने पर अपने स्वाभिमान का भाव व्यक्त करते हुए यह भी कहा तुम जाओ और स्वामी से कहो कि वे अयोध्या पहुँचें, मैं वहीं आकर मिल लूँगा; जबकि आदिपुराण के मतानुसार उन्होंने भरतजी के साथ संघर्ष हेतु युद्ध की तैयारी करली। बात जो भी हो; परन्तु जब दक्षिणांक दूत निराश होकर लौट आया तो भरतजी समझ गये कि बाहुबली ने इस भ्रातृ स्नेह मिलन को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया है। स्वाभिमानी है न! अस्तुः अब देखते हैं आगे-आगे होता है क्या?"
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