SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 151
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ BREE FRE १५२|| ये सभी धर्मध्यान सामूहिक स्वाध्याय के रूप में, तत्त्वगोष्ठी के रूप में, वाचना, पृच्छना आदि स्वाध्याय || के भेदों के रूप में, बारह भावना के चिन्तवन के रूप में, सामायिक के रूप में, उठते-बैठते, चलते-फिरते तत्त्वविचार करने आदि अनेक रूपों में हो सकते हैं। चौथा ध्यान - शुक्लध्यान चार प्रकार का कहा गया है -१. पृथक्त्ववितर्कवीचार, २. एकत्ववितर्कवीचार, | ३. सूक्ष्मक्रियापाति, ४. समुच्छिन्नक्रियाप्रतिपाति । जिस ध्यान में वितर्क अर्थात् शास्त्र के पदों का पृथक्-पृथक्प से वीचार अर्थात् संक्रमण होता रहे, उसे पृथक्त्ववितर्कवीचार नाम का प्रथम शुक्लध्यान है। शास्त्र को वितर्क कहते हैं और अर्थव्यंजन तथा योगों का संक्रमण (परिवर्तन) वीचार माना गया है। इन्द्रियों को वश करनेवाला मुनि, एक अर्थ से दूसरे अर्थ को, एक शब्द से दूसरे शब्द को और एक योग ध्या से दूसरे योग को प्राप्त होता हुआ इस पहले पृथक्त्ववितर्कवीचार नाम के शुक्लध्यान का चिन्तवन करता है; क्योंकि मन, वचन, काय इन तीनों योगों को धारण करनेवाले और चौदह पूर्वो के जाननेवाले मुनिराज ही इस पहले शुक्लध्यान का चिन्तवन करते हैं, इसलिए ही यह पहला शुक्लध्यान सवितर्क और सवीचार कहा जाता है। श्रुतस्कन्धरूपी समुद्र के शब्द और अर्थों का जितना विस्तार है, वह सब इस प्रथम शुक्लध्यान का ध्येय अर्थात् ध्यान करनेयोग्य विषय है और मोहनीय कर्म का क्षय अथवा उपशम होना इसका फल है। ___ यहाँ ऐसा तात्पर्य समझना चाहिए कि ध्यान करनेवाला मुनि श्रुतस्कन्धरूपी महासमुद्र से कोई एक पदार्थ लेकर उसका ध्यान करता हुआ किसी दूसरे पदार्थ को प्राप्त हो जाता है अर्थात् पहले ग्रहण किये हुए पदार्थ को छोड़कर दूसरे पदार्थ का ध्यान करने लगता है। एक शब्द से दूसरे शब्द को प्राप्त हो जाता है और इसीप्रकार एक योग से दूसरे योग को प्राप्त हो जाता है, इसीलिए इस ध्यान को सवीचार और सवितर्क कहते हैं। ग्यारह अंग और चौदह पूर्व के जाननेवाले मुनिराज ही प्रथम शुक्लध्यान को कर सकते हैं। यह | १२ BREFENERFPO VE
SR No.008374
Book TitleSalaka Purush Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2004
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size765 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy