SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 138
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ | भरतजी भगवान की पूजा कर चक्ररत्न की पूजा करने के लिए अपने नगर की ओर प्रस्थान कर गये। || बाहुबली आदि और भी भरत के छोटे भाई भरत के पीछे-पीछे वापिस लौट गये। इसप्रकार निधियों के अधिपति महाराजा भरत ने बड़े आनन्द के साथ अपनी अयोध्यापुरी में प्रवेश किया था। भरतजी भगवान ऋषभदेव की वन्दना कर अयोध्या नगरी लौटे, वहाँ पुत्रजन्म का महोत्सव तथा चक्ररत्न की विधिपूर्वक पूजा की। भरत के द्वारा उस समय किमिच्छिक दान देने से उसके सम्पूर्ण साम्राज्य में कोई दरिद्र नहीं रहा था। भरतजी ने इतना अधिक धन दे दिया कि याचकों ने हमेशा के लिए याचना करना ही छोड़ दिया था। राजर्षि भरत के वापिस अयोध्या लौट जाने पर और तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव की दिव्यध्वनि के बन्द हो जाने पर अर्थात् धर्मामृत की वर्षा कर चुकने के बाद भगवान ऋषभदेव का जब सहज विहार प्रारंभ होने को था तो सर्वप्रथम सौधर्म स्वर्ग के इन्द्र द्वारा दर्शन करते हुए तृप्ति को प्राप्त न होने से एक हजार नेत्र बनाकर तीर्थंकर ऋषभदेव की १००८ नामों से स्तुति प्रारंभ की। "हे प्रभो! यद्यपि मैं बुद्धिहीन हूँ तथापि आपकी भक्ति से प्रेरित होकर परम ज्योतिस्वरूप आपकी स्तुति करता हूँ। हे जिनेन्द्र! भक्तिपूर्वक आपकी स्तुति करने से भक्त स्वत: भगवान बन जाता है। पवित्र गुणों का निरूपण करना स्तुति है, प्रसन्न बुद्धिवाला भव्य स्तोता है, जिनके सब पुरुषार्थ सिद्ध हो चुके हैं - ऐसे आप स्तुत्य हैं और मोक्ष का सुख प्राप्त होना उसका फल है।" सौधर्म इन्द्र भगवान की स्तुति करते हुए कहता है कि - "हे प्रभो! आपके गुणों के द्वारा प्रेरित हुई भक्ति ही मुझे आनन्दित कर रही है, इसलिए मैं आपकी इस स्तुति के मार्ग में प्रवृत्त हो रहा हूँ। हे विभो! आभूषण आदि से रहित आपका दिगम्बरत्व आपके राग-द्वेष पर हुई विजय का प्रतीक है। तात्पर्य यह है कि रागी-द्वेषी मनुष्य ही आभूषण पहनते हैं; परन्तु आपने राग-द्वेष आदि अन्तरंग शत्रुओं पर पूर्ण विजय प्राप्त कर ली है, इसलिए आपको आभूषण आदि के पहनने की आवश्यकता नहीं है। REFav 44 BEFERFav FE ११
SR No.008374
Book TitleSalaka Purush Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2004
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size765 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy