SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 109
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ BREFREE R | भावनाओं का इसप्रकार चिन्तवन करने लगे। “सचमुच मेरी मनुष्यपर्याय इन क्षणभंगुर राज भोगों और | राग-रंग के लिए नहीं है, मैं इतने दिनों तक इनमें उलझा रहा - यही बड़ा अफसोस है।" तपकल्याणक - 'ऋषभदेव को वैराग्य हो गया' यह जानते ही ब्रह्मस्वर्ग से लौकान्तिक देव तपकल्याणक की पूजा करने अयोध्या आये और स्तुति करके उन्होंने राजा ऋषभदेव के वैराग्य की अनुमोदना की। आठप्रकार के लौकान्तिकदेव अपने पूर्व भव में श्रुत केवली होते हैं, वे एक भवावतारी होते हैं, उनके लोक का अन्त आ गया, इसकारण उन्हें लौकान्तिक कहते हैं। वे ऋषभदेव की स्तुति करते हुए कहने लगे - "हे नाथ! आप केवलज्ञान के प्रकाश द्वारा अज्ञान में डूबे हुए संसार के उद्धार में सनिमित्त बनेंगे। आपके द्वारा दर्शाये धर्मतीर्थ को प्राप्त करके भव्यजीव इस संसार समुद्र को क्रीड़ामात्र में पार कर लेंगे। आपकी वाणी भव्य जीवों के कल्याण का कारण बनेगी। प्रभो! आप धर्मतीर्थ के नायक हो। हे प्रभु! आप स्वयंभू हो। आपने मोक्ष का मार्ग स्वयं जान लिया है। आपकी दिव्यवाणी प्रत्येक आत्मा के स्वयंभू स्वरूप को समझायेगी।" ब्रह्मस्वर्ग के देव आगे कहते हैं कि “हम आपको प्रतिबोधने वाले कौन ? हममें कहाँ ऐसी सामर्थ्य है, हमारा तो मात्र शिष्टाचार है, इसे नियोग ही कहना चाहिए। वस्तुत: आप तो स्वयंबुद्ध हैं। भव्य जीव चातकवत आपकी दिव्यध्वनिरूप अमृतवर्षा की आशा से आपकी ओर निहार रहे हैं। अत: आप शीघ्र ही दीक्षा लेकर स्वरूप में सावधान होकर केवलज्ञान प्राप्त कर भव्यचातकों को दिव्यध्वनि का अमृत पान कराओ।" इसप्रकार ब्रह्मर्षि देवों द्वारा स्तुति किए जाने पर महाराजा ऋषभदेव ने दीक्षा धारण करने का निश्चय कर लिया। ब्रह्मर्षि देव ऋषभदेव के वैराग्य की अनुमोदना करके वापिस ब्रह्म स्वर्ग चले गये। उसी समय इन्द्रासन डोलने से सौधर्म इन्द्र ने जाना कि ऋषभदेव के तपकल्याणक का समय आ गया है। अत: वे तपकल्याणक का उत्सव करने सब देव और इन्द्रों के साथ अयोध्या आये। क्षीरसागर के जल से सम्राट ऋषभदेव का अभिषेक किया। सम्राट ऋषभदेव ने बाहुबली को पोदनपुर का राज्य देकर युवराज av | FEE उपराज८.
SR No.008374
Book TitleSalaka Purush Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2004
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size765 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy