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भाई! एक ही भूमिका के ज्ञानियों के संयोगों और संयोगी भावों में महान अन्तर हो सकता है। कहाँ क्षायिक सम्यग्दृष्टि सौधर्म इन्द्र और कहाँ सर्वार्थसिद्धि के क्षायिक सम्यग्दृष्टि अहमिन्द्र! सौधर्म इन्द्र तो जन्मकल्याणक में आकर नाभिराज के दरबार में ताण्डवनृत्य करता है और सर्वार्थसिद्धि के अहमिन्द्र दीक्षाकल्याणक, केवलज्ञानकल्याणक और मोक्षकल्याणक में भी नहीं आते; जबकि दोनों चतुर्थ गुणस्थान | वाले अविरति समकिती हैं। ___ संयोगों और संयोगी भावों में महान अन्तर होने पर भी दोनों की भूमिका एक-सी ही है। अत: संयोगी भावों के आधार पर राग या वैराग्य का निर्णय करना उचित नहीं है। ज्ञानी-अज्ञानी का निर्णय भी संयोग और संयोगी भावों के आधार पर नहीं किया जा सकता।
वह समय युग की आदि का समय था, कर्मभूमि प्रारंभ ही हुई थी। लोगों को कर्मभूमि की व्यवस्था का कुछ भी ज्ञान नहीं था। कल्पवृक्ष समाप्त हो गये थे। खान-पान की व्यवस्था श्रमसाध्य हो गई थी। लोगों को अनाज उगाने और भोजन पकाने की विधि भी ज्ञात नहीं थी। यह सब रूपरेखा भी ऋषभदेव ने ही दी। अतः उनका लम्बे कालतक राजकाज संभालना युग की आवश्यकता थी।
कर्मभूमि के आद्य सूत्रधार वे ही थे। उनके द्वारा दी गई व्यवस्था हमारे गृहस्थ जीवन का मूलाधार है। हमें अपने जीवन को उनके आदर्श जीवन के अनुसार व्यवस्थित करना चाहिए।
महाराजा ऋषभदेव का वेसठ लाख पूर्व का भारी काल पुत्र-पौत्र आदि से घिरे रहने के कारण, उनके स्नेहपूर्ण मधुर व्यवहार से सुख का अनुभव करते हुए, उन्हें इस बात का पता ही न चला कि “राज्य करते हुए मेरा इतना लम्बा काल कब/कैसे बीत गया ?" ऋषभदेव का वैराग्य - एक दिन सैकड़ों राजाओं से घिरे हुए राजा ऋषभदेव सिंहासन पर विराजे थे।
स्था भक्ति विभोर इन्द्र ने ऋषभदेव को प्रसन्न करने की भावना से अप्सराओं और गंधों का नृत्य कराना प्रारंभ | सर्ग किया। उस नृत्य ने राजा ऋषभदेव के मन को मोह लिया। सो ठीक ही है - शुद्ध स्फटिकमणि भी लाल
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