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रक्षाबंधन और दीपावली कहानी तो सत्य ही है; पर उसके आधार पर हमने जो निष्कर्ष निकाले हैं; वे कितने सही हैं - यहाँ विचार का बिन्दु तो मूलतः यही है।
इस कहानी में तीन मुनिराज हैं, तीन तरह के मुनिराज हैं - एक तो हैं सबके सिरमौर अकंपनाचार्य, दूसरे हैं महान विद्वान श्रुतसागर और तीसरे हैं विक्रिया ऋद्धिधारी विष्णुकुमार । ये तीनों के नाम भी एकदम सार्थक हैं; क्योंकि जो बड़े से बड़े उपसर्ग आने पर भी विचलित नहीं हुए, कम्पायमान नहीं हुए; वे हैं अकम्पन और जिन्होंने वादविवाद में मंत्रियों को हरा दिया और उनकी पूर्व पीढ़ियों की ही नहीं, बल्कि उनके पूर्व भवों की कहानी उन्हें सुना दी - ऐसे श्रुत के सागर श्रुतसागर । विष्णु माने होता है रक्षक । रक्षा करनेवाले मुनिराज का नाम विष्णुकुमार भी सार्थक नाम ही है।
मैंने अपने उपन्यास सत्य की खोज में भी ऐसे ही नाम रखे हैं - विवेक का धनी विवेक और रूपवान रूपमती। विवेक के पास रूप था कि नहीं ? इसकी चर्चा तो उसमें नहीं की, लेकिन रूपमती के पास अकल नहीं थी, इसकी चर्चा तो उसमें है ही। रूपमती के पास विवेक नहीं था। भले ही वह विवेक की पत्नी थी, लेकिन विवेकरहित थी।
शास्त्रों में ऐसी हजारों कहानियाँ हैं और वे उतनी ही प्रामाणिक हैं, जितनी कि राम की कहानी, भगवान महावीर की कहानी है; क्योंकि वे सोद्देश्य हैं और वे प्रथमानुयोग में शामिल हैं। मेरे कहने का मतलब यह है कि वे प्रथमानुयोग के बाहर नहीं हैं।
तीन तरह के मुनिराज हैं - एक वे जिनके प्रतिनिधि विष्णुकमार थे, एक वे जिनके प्रतिनिधि श्रुतसागर थे और एक वे जिनके प्रतिनिधि थे आचार्य अकंपन।
कितनी भी अनुकूलता-प्रतिकूलता आए, लेकिन जो अपने पद
रक्षाबंधन मर्यादाओं से कँपे नहीं, उनका उल्लंघन नहीं करें; कोई कितना ही उत्तेजित करे, पर उत्तेजित न हो, उनके प्रतिनिधि आचार्य अकंपन और उनके वे सात सौ शिष्य थे कि जिन्होंने इतनी अधिक प्रतिकूलता में भी कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की, आत्मसाधना में रत रहे।
ईंट का जवाब पत्थर से देना मुनिराजों का काम नहीं।
जगत की दृष्टि में तो सबसे जोरदार मुनिराज तो विष्णुकुमार ही थे न? बलि की छाती पर पैर रखकर आकाश के तारे दिखा दिये और मुनिराजों की सुरक्षा कर दी। पहले रक्षाबंधन के दिन विष्णुकुमार की ही पूजन की जाती थी। अब तो अकम्पनाचार्य की पूजन भी बन गई है और हमारे प्रतिपादन से प्रभावित कहीं-कहीं कुछ लोग उनको भी याद करने लग गये हैं। ___अकंपनाचार्य के बारे में हम कहते हैं कि बेचारे अकम्पन ! वहाँ (उज्जैनी में) भी पिटते-पिटते बचे और यहाँ (हस्तिनापुर में) तो पिट ही गये; कुछ नहीं कर पाये, जवाब तक नहीं दे पाये।
दूसरे नम्बर पर हमें दिखाई देते हैं मुनिराज श्रुतसागर । हम कहते हैं कि देखो ! कैसा मुंहतोड़ जवाब दिया कि नानी याद आ गई।
तात्पर्य यह है कि हमारे अन्दर जो लड़ाकू वृत्ति है, उसके कारण हमने मुनिराजों में भी संघर्ष में उलझे मुनिराजों को ही पसन्द किया; पर अपने ज्ञान-ध्यान में लीन रहनेवाले, उपसर्ग से कभी न डिगनेवाले अकम्पनाचार्य और उनके सात सौ शिष्यों को पसन्द नहीं किया। ___ मैं इन तीनों प्रकार के मुनिराजों के मुनिपने में शंका नहीं कर रहा हूँ। वे सभी मुनिराज हैं, हमारे लिए तीनों परमपूज्य हैं। पर बात यह है कि इस रक्षाबन्धन की कहानी के आधार पर सबसे महान कौन हैं, सर्वश्रेष्ठ कौन ? बस बात मात्र इतनी ही है।
अकम्पन आचार्य हैं और उन्होंने मर्यादाओं को भी पाला; इसलिए
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