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________________ रक्षाबंधन और दीपावली रक्षाबंधन और दीपावली सकते; क्योंकि एक जगह अधिक काल तक रहने से वहाँ के लोगों से, स्थान से राग हो जाता है और शत्रु भी पैदा हो जाते हैं। मुनिराज हरयाली पर पैर नहीं रखते; इसकारण रास्ते अवरुद्ध हो जाने से चार महिने एक ही जगह रुकने की आज्ञा है। चाहे साधु-संत हों, चाहे ब्रह्मचारी हों, चाहे विद्वान हों; जिनकी धर्म में गति है, जो उपदेशक हैं; मेरी दृष्टि में ब्रह्म (आत्मा) को जाननेवाले वे सभी ब्राह्मण हैं; इसलिए मैं कहता हूँ कि ये रक्षाबंधन ब्राह्मणों का पर्व है। बरसात समाप्त हो जाने पर रास्ते खुल जाते हैं। लड़ाईयों का समय आ जाता है। इसलिए क्षत्रिय लोग अपने जंग खाये हुए हथियारों की सफाई करते हैं और उन्हें चलाकर देखते हैं कि ये काम के भी रहे हैं या नहीं। इसतरह दशहरा पर्व क्षत्रियों का पर्व है। आप देखते हैं कि दशहरे पर सभी जगह जो जुलूस निकलते हैं, उनमें हथियारों को चलाने की कला का प्रदर्शन होता है । इसतरह प्रकृति से ही यह दशहरा क्षत्रियों का पर्व है। दीपावली व्यापारियों का पर्व हैं; क्योंकि आवागमन चालू हो गया, इसलिए अब देश-परदेश जा सकते हैं। सारंग खुल जाने से व्यापारियों का व्यापार भी आरंभ हो जाता है। अत: वे भी तराजू आदि की सफाई करके उसकी पूजा करते हैं। इसलिए यह दीपावली व्यापारियों का पर्व है। सर्दियों में युद्ध होते हैं, व्यापारी देश-परदेश जाकर बहुत कमाई करते हैं, किसान लोग अपनी खेती आदि में जुटे रहते हैं, काम में लगे रहते हैं; लेकिन अंत में जाकर जब होली आती है, तब खेतों में अनाज आ जाता है, किसान भी खुश, व्यापारी लोग भी पैसा कमाकर अपने घर लौट के आते हैं और क्षत्रिय भी दिग्विजय प्राप्त करके लौटकर अपने घरों पर आते हैं और वसंतोत्सव मनाते हैं अर्थात् राग-रंग में डूब जाते हैं। शूद्र माने मात्र वे लोग नहीं, जो सफाई करते हैं। हर एक के मन में समाहित गन्दगी जब उभर कर ऊपर आ जाए तो सभी शूद्र हो जाते हैं; यानी उस वक्त ब्राह्मण भी शूद्र हो जाते हैं, क्षत्रिय भी शूद्र हो जाते हैं, वैश्य भी शूद्र हो जाते हैं और गाली-गलौच करना, एक-दूसरों के ऊपर कीचड़ उछालना आदि प्रवृत्तियाँ होने लगती है। ____ इस समय लोग मात्र काया से ही नहीं, अपनी जबान से भी कीचड़ उछालते हैं। गन्दे मजाक करना कीचड़ उछालना ही तो है। जब चारों वर्ण शूद्रता पर उतर आएँ, हल्केपन पर उतर आए तो समझ लेना कि होली आ गई है। कहते हैं कि इस समय बुड्ढों को भी रंग चढ़ने लगता है। ऐसा कोई आदमी नहीं होता है, जो राग-रंग में मस्त नहीं होता है और उसकी वासनाएँ उद्दीप्त नहीं होती हैं। इसतरह होली शूद्रों का पर्व है। ये चार पर्व भारतीय संस्कृति में ऋतु-विज्ञान के आधार पर प्रचलित पर्व हैं। बाद में लोगों ने इनसे अपनी-अपनी कुछ घटनाएँ जोड़ ली हैं। कहने का अर्थ यह है कि ये सब चीजें बाद की जुड़ी हुई लगती हैं; क्योंकि ये चारों पर्व प्राकृतिक हैं और उक्त घटनाओं से पहले भी रहे होंगे। इन चारों पर्यों में जैनियों ने दो पर्यों को अपनाया - एक रक्षाबंधन और दूसरा दीपावली । जैनियों ने दशहरा और होली को नहीं अपनाया; क्योंकि ये दोनों पर्व राग-द्वेष के सूचक हैं। जिसमें मन-वचन-काय की गन्दगी उछलकर बाहर आ जाए - ऐसी होली वीतरागता को धर्म माननेवाले जैनियों को कैसे स्वीकृत हो सकती थी ? इसीप्रकार अहिंसाप्रेमी जैनसमाज को शस्त्रों की पूजा का पर्व कैसे सुहा सकता था ? दीपावली एक तो वैश्यों का पर्व था, दूसरे उसी दिन महावीर का निर्वाण हो गया। वह धार्मिक पर्व होने से हमारे प्रकृति के अनुकूल था; हिंसा, राग और द्वेष से संबंधित नहीं था। इसलिए हमने रक्षाबंधन और दीपावली - इन दो पर्वो को अपना लिया। (6)
SR No.008372
Book TitleRakshabandhan aur Deepavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages24
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size177 KB
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