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________________ रक्षाबंधन और दीपावली आत्मा के ध्यान से उपयोग को बाहर लाये ही नहीं, कँपें ही नहीं; वे ही महान अकम्पनाचार्य जैसे मुनिराज ही महानता की श्रेणी में आते हैं। इतनी बात तो अजैनी शत्रु भी जानते थे कि मर जायेंगे; पर ये मुनिराज घाँस पर पैर नहीं रखेंगे, निकल कर नहीं भागेंगे। इससे मुनिधर्म की महानता ख्याल में आती है। ____ मुनिराजों ने आहार नहीं लिया था तो जनता भी उपवास कर रही थी। लेकिन जब यह पता चला कि उपसर्ग दूर हो गया है; तो हरियाली हटा दी गई। उक्त उखड़ी हुई घास को लेकर सभी जैनी भागे और अपने -अपने गाँवों में आकर खबर दी की मुनिराजों का उपसर्ग दूर हो गया है। आप जानते हो गाँवों में आज भी रक्षाबंधन के दिन भुजरियाँ निकलती हैं, हमारे गाँव में भी निकलती हैं। एक आदमी दूसरे आदमी को भुजरियाँ भेंट करता है। जो बुजुर्ग लोग घर पर ही थे; उन्हें जब यह बताया गया कि मुनिराजों का उपसर्ग दूर हो गया है, तो उन्हें एकाएक विश्वास ही नहीं हुआ। तब उन्हें वह उखड़ी हुई घास प्रमाण के रूप में दी गई और कहा गया कि जिस घास से रास्ता रोका गया था, वह घास हम उखाड़कर लाये हैं। फिर क्या हुआ, सारे मुनिराज आहार को आये, तो श्रावकों ने देखा कि सात दिन से भूखे हैं, धुएँ से गला खराब है; इसलिए आहार में सिवईयाँ बनाई गई; जिससे मुँह में डालो, तो बिना ही प्रयत्न के वे पेट में पहुँच जाए। चबाना भी सरल और गुटकने में भी ज्यादा दिक्कत न हो। उस दिन से रक्षाबंधन के दिन घरों में सिवईयाँ बनने लगीं। भुजरियाँ और सिवइयों की यही कहानी है। जो भी हो, हम और अक्षम्य अपराध अगाध पाण्डित्य के धनी मुनिराज श्रुतसागर ने जब बलि आदि मंत्रियों से हुए विवाद का समाचार सुनाया तो आचार्य अंकपन एकदम गंभीर हो गये। जगत की प्रवृत्तियों से भलीभाँति परिचित आचार्यश्री के मुखमण्डल पर अनिष्ट की आशंका के चिह्न छिपे न रह सके। यद्यपि जबान से उन्होंने कुछ भी नहीं कहा; तथापि उनका मनोगत अव्यक्त नहीं रहा । सहज सरलता के धनी महात्माओं का कुछ भी तो गुप्त नहीं होता। ___ यद्यपि कोई कुछ बोल नहीं रहा था; तथापि गम्भीर मौन पूरी तरह मुखरित था। शब्दों की भाषा से मौन की भाषा किसी भी रूप में कमजोर नहीं होती, बस उसे समझनेवाले चाहिये। चेहरे के भावों से ही मनोगत पढ़ लेनेवाले श्रुतज्ञ श्रुतसागर को स्थिति की गम्भीरता समझते देर न लगी। आचार्यश्री के चिन्तित मुखमण्डल ने उन्हें भीतर से मथ डाला था; अत: वे अधिक देर तक चुप न रह सके। “अपराध क्षमा हो पूज्यपाद ! अविवेकी अपराधी के लिए क्या प्रायश्चित है ? आज्ञा कीजिये।" "बात प्रायश्चित की नहीं, संघ की सुरक्षा की है। ऐसा कौनसा दुष्कर्म है, जो अपमानित मानियों के लिए अकृत्य हो। जब मार्दव धर्म के धनी श्रुतसागर से भी दिगम्बरत्व का अपमान न सहा गया तो फिर मार्दव धर्म का नाम भी न जाननेवालों से क्या अपेक्षा की जा सकती है? "धर्म परम्परा नहीं, स्वपरीक्षित साधना है।" - पण्डित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व, पृष्ठ : ३१५ (14)
SR No.008372
Book TitleRakshabandhan aur Deepavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages24
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size177 KB
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