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इस जीव के ध्रुव एक ही उपयोगमय यह आतमा ।।१९३।। यह जान जो शुद्धातमा ध्यावें सदा परमातमा। दुठ मोह की दुर्ग्रन्थि का भेदन करें वे आतमा ।।१९४।। मोहग्रन्थी राग-रुष तज सदा ही सुख-दुःख में। समभाव हो वह श्रमण ही बस अखयसुख धारण करें।।१९५।। आत्मध्याता श्रमण वह इन्द्रियविषय जो परिहरे। स्वभावथित अवरुद्ध मन वह मोहमल का क्षय करे ।।१९६।। घन घातिकर्म विनाश कर प्रत्यक्ष जाने सभी को। संदेहविरहित ज्ञेय ज्ञायक ध्यावते किस वस्तु को ।।१९७।। अतीन्द्रिय जिन अनिन्द्रिय अर सर्व बाधा रहित हैं।
परमेष्ठियों को कर नमन श्रामण्य को धारण करो ।।२०१।। वृद्धजन तिय-पुत्र-बंधुवर्ग से ले अनुमति । वीर्य-दर्शन-ज्ञान-तप-चारित्र अंगीकार कर ।।२०२।। । रूप कुल वयवान गुणमय श्रमणजन को इष्ट जो। ऐसे गणी को नमन करके शरण ले अनुग्रहीत हो ।।२०३।। रे दूसरों का मैं नहीं ना दूसरे मेरे रहे। संकल्प कर हो जितेन्द्रिय नग्नत्व को धारण करें।।२०४।। शृंगार अर हिंसा रहित अर केशलुंचन अकिंचन । यथाजातस्वरूप ही जिनवरकथित बहिलिंग है।।२०५।। आरंभ-मूर्छा से रहित पर की अपेक्षा से रहित ।
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चहुँ ओर से सुख-ज्ञान से समृद्ध ध्यावे परमसुख ।।१९८।। निर्वाण पाया इसी मग से श्रमण जिन जिनदेव ने। निर्वाण अर निर्वाणमग को नमन बारंबार हो ।।१९९।। इसलिए इस विधि आतमा ज्ञायकस्वभावी जानकर। निर्ममत्व में स्थित मैं सदा ही भाव ममता त्याग कर ।।२००।। सुशुद्धदर्शनज्ञानमय उपयोग अन्तरलीन जिन । बाधारहित सुखसहित साधु सिद्ध को शत्-शत् नमन ।।१४।। चरणानुयोगसूचक चूलिका महाधिकार
आचरणप्रज्ञापनाधिकार हे भव्यजन ! यदि भवदुखों से मुक्त होना चाहते। •आचार्य जयसेन की टीका में प्राप्त गाथा १४
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शुधयोग अर उपयोग से जिनकथित अंतरलिंग है।।२०६।।युग्मम्।। जो परमगुरुनम लिंग दोनों प्राप्त कर व्रत आचरें। आत्मथित वे श्रमण ही बस यथायोग्य क्रिया करें ।।२०७।। व्रत समिति इन्द्रिय रोध लुंचन अचेलक अस्नान व्रत । ना दन्त-धोवन क्षिति-शयन अर खड़े हो भोजन करें।।२०८।। दिन में करें इकबार ही ये मूलगुण जिनवर कहे। इनमें रहे नित लीन जो छेदोपथापक श्रमण वह ।।२०९।।युग्मम् ।। दीक्षा समय जो दें प्रव्रज्या वे गुरु दो भेदयुत । छेदोपथापक श्रमण हैं अर शेष सब निर्यापका ।।२१०।। । यदि यत्नपूर्वक रहें पर देहिक क्रिया में छेद हो।
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