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प्रवचनसार का सार ऐसे ही मनुष्यादि पर्यायों पर जिनकी दृष्टि है; वे मिथ्यादृष्टि हैं एवं जिनकी दृष्टि 'उसमें घूमनेवाले त्रिकाली ध्रुव पर हैं', वे सम्यग्दृष्टि हैं।
जिसकी आतमा पर दृष्टि है, वह स्वयं को मनुष्य व्यवहार से नहीं जोड़ता हैं; क्योंकि उस मनुष्यव्यवहार में समस्त क्रियाकाण्ड को छाती से लगाया जाता है।
समाज में ऐसे उपदेशक तो बहुत मिलेंगे, जो ऐसा कहते हैं कि जिसे भगवान के दर्शन का भाव नहीं आता है, वह मिथ्यादृष्टि हैं; जिसे पूजन करने का एवं दान देने का विकल्प नहीं आता है, वह मिथ्यादृष्टि है; जो व्रत-उपवास नहीं करता है, वह मिथ्यादृष्टि है।।
इसप्रकार जो सम्पूर्ण क्रियाकाण्ड को नहीं करता है; वह मिथ्यादृष्टि है - ऐसे कहनेवाले तो गली-गली में मिल जायेंगे; परन्तु प्रवचनसार की टीका के कर्ता इसे मनुष्यव्यवहार कह रहे हैं एवं जो इसे छाती से लगाता है; वह असमानजातीयद्रव्यपर्याय में एकत्वबुद्धिवाला है; अज्ञानी है, मिथ्यादृष्टि है।
ज्ञानीजनों का व्यवहार ऐसा नहीं होता है। ज्ञानीजनों का व्यवहार तो ऐसा होता है कि वे इस क्रियाकाण्ड को छाती से नहीं लगाते हैं।
क्रियाकाण्ड तो ज्ञानी के भी होता है; उन्हें भगवान के प्रति भक्ति का भाव आता है, दान देने का भाव होता है, जिनवाणी को घर-घर पहुँचाने का भाव आता है - इसप्रकार ये सब भाव ज्ञानी के होते हैं; परन्तु इनमें उसकी रंचमात्र भी एकत्वबुद्धि नहीं है। ___ इस क्रियाकाण्ड को करने से मैं धर्मात्मा हो गया' - ऐसा किंचित्मात्र भी विकल्प ज्ञानी को नहीं आता है।
उस समय ज्ञानी के जो आत्मा में एकत्वबुद्धि है, आत्मचेतनाविलासमात्र में एकत्वबुद्धि है, उसमें जो उसे उत्साह है; वह धर्म की क्रिया है, जिसे वह सम्यक्प्रकार से जानता है। वहाँ जो तीव्रता, मंदता होती है, वह उदय के अनुसार होती है।
दसवाँ प्रवचन
सम्यग्दृष्टि को समय-समय पर तीव्र और मिथ्यादृष्टि को मंद उदय हो सकता है। कभी मिथ्यादृष्टि को तीव्र व सम्यग्दृष्टि को मंद उदय हो सकता है। इसका संबंध अंतर में आत्मा में एकत्वबुद्धिरूप सम्यग्दर्शन से नहीं है; वह जैसा उदयानुसार होता है, वैसा होता है।
इसे भावार्थ में और अधिक सरलता से स्पष्ट किया है -
"मैं मनुष्य हूँ, शरीरादिक की समस्त क्रियाओं को मैं करता हूँ, स्त्री-पुत्र-धनादिक के ग्रहण-त्याग का मैं स्वामी हूँ।' इत्यादि मानना सो मनुष्यव्यवहार है, 'मात्र अचलित चेतना ही मैं हूँ" ऐसा माननापरिणमित होना सो आत्मव्यवहार है।'
इसप्रकार आचार्यदेव ने वजन 'असमानजातीय द्रव्यपर्यायवाले परसमय हैं।' पर ही दिया है।
जो एक द्रव्य के द्रव्य-गुण-पर्याय हैं एवं उनका जो अस्तित्व है, वह स्वरूपास्तित्व है। जितने पदार्थ लोक में हैं; उन अनंत पदार्थों में इसीप्रकार का अस्तित्व है। इसप्रकार अस्तित्व अस्तित्व में समानता है। इस समानता के आधार पर, महासत्ता के आधार पर, उनमें एकता की कल्पना करना ही सादृश्यास्तित्व है। इसप्रकार समानता के आधार पर जो एकता है वह सादृश्यास्तित्व है।
हम तुम एक से हैं, इसलिए यहाँ आचार्यदेव ‘एक हैं' - ऐसा कह रहे हैं। उस सादृश्यास्तित्व के आधार पर हम सब एक हैं - ऐसा जानकर यदि कोई स्त्री-पुत्रादिक में अपनत्व करता है तो वह मिथ्यादृष्टि है। स्वरूपास्तित्व का ज्ञान करके, उसमें एकत्वबुद्धि को जोड़े बिना, उसी के समान जो दूसरी वस्तुएँ हैं, उनमें एकत्व करना मिथ्यात्व है।
स्वरूपास्तित्व अर्थात् अपने द्रव्य-गुण-पर्याय के भीतर ही सत्ता होती है। सत्ता अर्थात् अस्तित्व गुण । जो उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य से सहित है, वही द्रव्य है, वही सत्ता है। यह सत्ता पृथक् से कोई अन्य चीज नहीं है।
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