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प्रवचनसार का सार नहीं है। इस शुभपरिणामाधिकार को गम्भीरतापूर्वक ध्यान से पढ़ने के बाद यह स्पष्ट होगा कि यह वही अधिकार है, जिसमें शुभभाव को अभिसारिका कहा है। जो सम्पूर्ण निर्दोष मुनिलिंग का पालन करता है - ऐसे मुनि के क्रियाकाण्ड और शुभभाव का भी यहाँ निषेध किया गया है; किन्तु स्वाध्यायवाले शुभभाव को उपायान्तर बताया है एवं इसका समर्थन भी किया है। यही कारण है कि स्वाध्याय को परमतप कहा गया है।
गृहस्थों के षट् आवश्यक में भी स्वाध्याय समाहित है और मुनियों के षट् आवश्यक में भी स्वाध्याय समाहित है। मुनियों के देवपूजा, गुरूपासना आदि नहीं है; परंतु स्वाध्याय उन्हें भी अनिवार्यरूप से कहा गया है। अन्यत्र द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव संबंधी बाधाएँ उपस्थित हो सकती हैं। लेकिन स्वाध्याय में ये बाधाएँ भी उपस्थित नहीं होती।
रात्रि में भोजन करना ठीक नहीं है, परन्तु स्वाध्याय दिन-रात में आप कभी भी कर सकते हैं।
कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि हमारा पूरा समय सफर में ही गुजर जाता है; हम वहाँ कैसे देवदर्शन करें, कैसे पूजन करें और कैसे प्रवचन सुने ? उनसे कहते हैं कि आप रेल में, प्लेन में मोक्षमार्गप्रकाशक, प्रवचनसार आदि ग्रन्थों का स्वाध्याय तो कर ही सकते हैं। शास्त्रों में ऐसी जगह पढ़ने के लिए कोई मनाही नहीं है। बस में गंदी-गंदी कहानियाँ, अखबार, पत्र-पत्रिकाएँ पढ़ते हैं; उसकी जगह यदि आबाल-वृद्ध सभी स्वाध्याय करें तो इससे स्वाध्याय के लिए समय की कमी नहीं रहेगी। ___ महिलाओं के मुनिधर्म नहीं हो सकता है, पुरुषों को यह (विशिष्ट) व्रत नहीं हो सकता । यदि कोई पुरुष सुगंधदशमी व्रत करता है तो उसपर हँसा जाता है और कहा जाता है कि यह तो महिलाओं का व्रत है; परन्तु स्वाध्याय में ऐसा कोई प्रतिबन्ध नहीं है। इसमें महिला पुरुष ऐसा भेद नहीं है और न ही भाषा की कोई समस्या है। हमारे सद्भाग्य से अब
आठवाँ प्रवचन प्रत्येक भाषा में लगभग सभी ग्रन्थ उपलब्ध हैं।
यदि हम टोडरमलजी के समय का विचार करें तो हमें समझ में आएगा कि आज हम कितने भाग्यशाली हैं। तब संस्कृत-प्राकृत पढ़ानेवालों की व्यवस्था नहीं थी। आज तो इसे पढ़ाने के लिए कॉलेज बने हुए हैं। तब मात्र संस्कृत-प्राकृत में ही धार्मिक ग्रन्थ थे, जनभाषा में कोई ग्रन्थ नहीं था; अत: शास्त्रस्वाध्याय करना बहुत कठिन था।
आज हमारे पास सभी ग्रन्थ उपलब्ध हैं; वह भी अत्यल्प मूल्य में; कभी-कभी वे आधी कीमत में भी उपलब्ध हो जाते हैं। पहले जमाने में कोई सेठ अपने बेटे के लिए ग्रन्थ लिखाये तो उसके १०० रु. देने पड़ते थे। वे १०० रु. आज के एक लाख रुपए के बराबर हैं। इसप्रकार तब एक किताब एक लाख रु. में मिलती थी; आज वही किताब २० रु. में मिल जाती है। ___लोग शिकायत करते हैं कि महंगाई बढ़ गई है; लेकिन इस विश्लेषण से तो शास्त्रों के सन्दर्भ में महंगाई घटी है। हमारे जैनसमाज में करोड़ों के कार्यक्रम तैयार हो रहे है। मुमुक्षु, गैरमुमुक्षु सभी बड़े-बड़े स्मारक खड़े कर रहे हैं। पहाड़ियाँ कटकर तीर्थ बन रहे हैं। इसकी तुलना में शास्त्रों में कितना खर्चा होता है?
जिन्हें नाम कमाना है, उन्हें भी अपनी राशि शास्त्रों में ही खर्च करने में लाभ है। यदि किसी व्यक्ति ने किसी गाँव में मंदिर बनाया और उसपर अपना नाम लिख दिया तो उस गाँव में जो व्यक्ति जाएगा, वहाँ उस मंदिर को देखेगा; मात्र उसे ही पता चल पावेगा, अन्य को नहीं।
यदि आपने १००० रु. किसी ग्रंथ की कीमत कम करने में दिए और उसकी १०,००० प्रतियाँ छपी तो आपका नाम १०,००० गाँवों में पहुँच जाएगा। यदि यह व्यक्ति १०,००० बार अपना नाम एक पर्चे पर छपाता तो १,००० रु. से भी अधिक खर्चा आता; फिर भी उसे कोई पढ़नेवाला ही नहीं मिलता। समयसार महाशास्त्र के साथ, कुन्दकुन्ददेव
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