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प्रवचनसार का सार
१२० होता है; उस भूमिका में वैसा ही होगा। इसीप्रकार हम दान देने का निषेध नहीं करते हैं। हम तो दान देने के बाद जो 'मैं चौड़ा और बाजार संकड़ा' ऐसी प्रवृत्ति होती है, उसका निषेध कर रहे हैं।
अब आचार्य यहाँ मोह की सेना को जीतने के लिए क्या उपाय करना चाहिए - इस सन्दर्भ में विचार करते हैं। यहाँ ८० वीं गाथा की भूमिका के अन्तर्गत मोहरूपी सेना को जीतने के उपाय का प्रकरण चल रहा है।
यहाँ आचार्य उस भूमिका की चर्चा कर रहे हैं, जिस भूमिका में चाहे मुनि हो, चाहे गृहस्थ हो; परन्तु उसे आत्मा का अनुभव नहीं है। आचार्य कह रहे हैं कि भूमिका के योग्य तुम्हारी सम्पूर्ण धार्मिक क्रियाएँ अच्छी हों; भाव भी भूमिकानुसार शुभ हो; पर उनसे कुछ भी सिद्ध होनेवाला नहीं है। तुमने बहुत उत्कृष्ट काम कर लिया है - इस धोखे में मत रहना।
यहाँ कोई क्रिया छोड़ने का प्रकरण नहीं है, यहाँ तो मोह की सेना को जीतने का उपाय बता रहे हैं।
जो जाणदि अरहंतं, दव्वत्तगुणत्तपजयेत्तेहिं । सोजाणदि अप्पाणं, मोहोखलु जादि तस्स लयं ।।८।।
(हरिगीत) द्रव्य-गुण-पर्याय से जो जानते अरहंत को।
वे जानते निज आतमा दृगमोह उनका नाश हो ।।८।। जो अरहंत को द्रव्यपने, गुणपने और पर्यायपने जानता है; वह अपने आत्मा को जानता है और उसका मोह अवश्य क्षय को प्राप्त होता है।
अरहंत इस पद में देव-शास्त्र-गुरु तीनों समाहित होते हैं। अरहंत देव, उनकी दिव्यध्वनि शास्त्र और उसके प्रतिपादक भावलिंगी सन्त गुरु हैं। जिसे आत्मा का अनुभव नहीं है, उसे एकदम अंतर से आत्मा का अनुभव नहीं हो जायेगा। उसे अरहंत के द्रव्य-गुण-पर्याय का निर्णय
सातवाँ प्रवचन
___ १२१ करना होगा; वह निर्णय देशनालब्धि अथवा जिनवाणी के आधार से ही होगा। यह निर्णय दिव्यध्वनि से होगा अथवा गणधरों के द्वारा गूंथी हुई द्वादशाग वाणी से होगा। इसप्रकार अरहंत इस पद में देव-शास्त्रगुरु तीनों समाहित होते हैं। वास्तव में तो अरहंत भगवान ही परमगुरु हैं। शेष तो परम्परागुरु हैं।
जबतक आत्मा का अनुभव नहीं हुआ है, तबतक शुभभाव ही है। इसलिए आचार्य ने इस गाथा को शुभपरिणामाधिकार में समाहित किया है।
यहाँ आचार्यदेव ने अरहंत को 'द्रव्य-गुण-पर्याय से जानने' की बात की है; जो बहुत महत्त्वपूर्ण है। यदि आचार्य यह विशेषण नहीं लगाते तो हम अरहंत को ३४ अतिशय और ८ प्रातिहार्यों से ही देखते।
इसप्रकार इसी में अटक जाते । इसप्रकार जीव भ्रमित न हो; इसलिए ही आचार्यदेव ने यहाँ द्रव्य-गुण-पर्याय से जानने की बात कही है।
द्रव्य-गुण-पर्याय से जाने अर्थात् अरहंत को वस्तस्वरूप से जाने । अरहंत तो अवस्था का नाम है; फिर आचार्यदेव ने यहाँ 'द्रव्य-गुणपर्याय से जानो' यह बात क्यों कही?
आचार्यदेव चाहते हैं कि हम अरहंत पर्याय में विद्यमान सर्वज्ञता को जाने, वीतरागता को जाने; क्योंकि हमारा स्वभाव भी सर्वज्ञत्वशक्ति सम्पन्न हैं। ये मतिज्ञान हमारा स्वभाव नहीं है। हमारा पर्यायस्वभाव भी सर्वज्ञ जैसा ही है।
आचार्य यहाँ यह लिखते हैं कि जो अरहंत को द्रव्य-गुण-पर्याय से जानेगा; वह अपने आत्मा को द्रव्य-गुण-पर्याय से जानेगा।
आचार्य यहाँ यह कह रहे हैं कि अरहंत भगवान के द्रव्य-गुणपर्याय को जानो अर्थात् उनके द्रव्य को पहिचानो; उनमें जो अनंत गुण हैं, उन्हें जानो और उनकी पर्यायों को भी जानों । जो आत्मा अरहंत को द्रव्य-गुण-पर्याय से जानता है, वही आत्मा अपने आत्मा को द्रव्यगुण-पर्याय से जानता है और उसका ही मोह नाश को प्राप्त होता है।
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