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प्रवचनसार का सार शुभपरिणाम का स्वरूप स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं -
देवदजदिगुरुपूजासु चेव दाणम्मि वा सुसीलेसु। उववासादिसु रत्तो सुहोवओगप्पगो अप्पा ।।६९।। जुत्तो सुहेण आदा तिरिओ वा माणुसो व देवो वा। भूदो तावदि कालं लहदि सुहं इन्द्रियं विविहं ।।७०।। सोक्खं सहावसिद्धं णत्थि सुराणं पि सिद्धमुवदेसे। ते देहवेदणट्ठा रमंति विएसु रम्मेसु ।।७१।।
(हरिगीत) देव-गुरु-यति अर्चना अर दान उपवासादि में। अर शील में जो लीन शुभ उपयोगमय वह आतमा ।।६९।। अरे शुभ उपयोग से जो युक्त वह तिर्यग्गति । अर देव मानुष गति में रह प्राप्त करता विषयसुख ।।७०।। उपदेश से है सिद्ध देवों के नहीं है स्वभावसुख ।
तनवेदना से दुखी वे रमणीक विषयों में रमे ।।७१।। देव, गुरु और यति की पूजा में, दान में, सुशीलों में और उपवासादिक में लीन आत्मा शुभोपयोगात्मक है।
शुभोपयोगयुक्त आत्मा, तिर्यंच, मनुष्य अथवा देव होकर, उतने समय तक विविध इन्द्रियसुख प्राप्त करता है।
जिनदेव के उपदेश से यह सिद्ध है कि देवों के भी स्वभावसिद्ध सुख नहीं है; वे (पंचेन्द्रियमय) देह की वेदना से पीड़ित होने से रम्य विषयों में रमते हैं।
शुभोपयोग में लीन तिर्यंच, मनुष्य और देव सभी शुभोपयोग के फल में इन्द्रियसुखों की प्राप्ति करते हैं।
पूर्व में आचार्यदेव ने शुद्धोपयोगाधिकार में कहा था कि शुद्धोपयोगी मुनि निर्वाणसुख को प्राप्त करते है और अन्य शुभोपयोगी मुनि स्वर्गसुख को प्राप्त करते हैं। यह भी कहा था कि स्वर्गसुख घी में उबलते हुए
छठवाँ प्रवचन
१०९ प्राणियों के द:ख के समान ही है।
यहाँ नरक को छोड़कर शेष तीन गतियाँ ली हैं; क्योंकि नरक शुभपरिणाम का फल नहीं है; किन्तु तिर्यंच आयु को शुभ माना गया है।
तिर्यंच में भी कोई मरना नहीं चाहता है, यदि उसे मारने के लिए दौड़ते है तो वह जान बचाने के लिए भागता है। इससे आशय यह है कि वह उसे अच्छा मान रहा है; अत: वह शुभ है, शुभ का फल है; इसप्रकार शुभ के फल में तीन गतियाँ ली हैं; नरकगति नहीं ली है। वह इन तीन गतियों में उतने समय तक विविध इन्द्रियसुख प्राप्त करता है। तिर्यंच भी शुभोपयोग के फल में सुख प्राप्त करता है। तिर्यंच भोगभूमियाँ होते हैं; पर नारकी भोगभूमियाँ नहीं होते।
अमेरिका के कुत्ते और बिल्लियों को रहने के लिए एयर कंडीशन घर एवं घूमने के लिए कारें मिलती हैं। उनके भी ऐसे पुण्य का उदय है; परन्तु ऐसे पुण्य का उदय नारकी के नहीं है; इसलिए उन्होंने तिर्यंच को तो शुभोपयोग के फल में लिखा, पर नारकी को नहीं।
पंचेन्द्रियों के विषयों का जो सुख है, वह शुद्धोपयोग का फल नहीं है और वह वास्तव में सुख ही नहीं है -
णरणारयतिरियसुरा भजन्ति जदि देहसंभवं दुक्खं । किह सो सुहो व असुहो उवओगो हवदि जीवाणं ।।७२।।
(हरिगीत ) नर-नारकी तिर्यंच सुर यदि देहसंभव दुःख को।
अनुभव करें तो फिर कहो उपयोग कैसे शुभ-अशुभ? ||७२।। मनुष्य, नारकी, तिर्यंच और देव (सभी) यदि देहोत्पन्न दुःख को अनुभव करते हैं, तो जीवों का वह (शुद्धोपयोग से विलक्षण अशुद्ध) उपयोग शुभ और अशुभ - दो प्रकार का कैसे हो सकता है ?
पंचेन्द्रियों के विषयों की प्राप्ति पुण्य के उदय से होती है और उनमें जीव दौड़-दौड़कर रमता है। वह रमणता पाप है; इसप्रकार उनमें पाप और पुण्य का भेद करने से कुछ लाभ नहीं है। शुभोपयोग
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