________________
१०४
प्रवचनसार का सार भगवान ऋषभदेव ने जब दीक्षा ली और जंगल में आहार के लिए नग्न घूमने लगे तो जगत को ऐसा लगता था कि बेचारे नग्न घूमते हैं, पहनने के लिए कपड़े तक नहीं हैं, सवारी नहीं है, पैर में जूते तक नहीं हैं, घर-स्त्री-पुत्र कुछ भी नहीं है। इन वस्तुओं के बिना ये कितने दुखी हैं? - यह सोचकर सब लोग उन्हें यह सब देने के लिए तैयार थे।
सम्पूर्ण जगत तो यही मानता है कि इनके बिना ही सब जीव दुःखी हैं और उन्हें यह उपलब्ध करा देंगे तो सब सुखी हो जाएंगे।
इसप्रकार इन वस्तुओं को हमने सुख की निशानी मान लिया है। ये वस्तुएँ मुनिराजों के पास नहीं है; इसलिए उन्हें दुःखी मान लिया है। अरहंत और सिद्धों के पास भी नहीं है; इसलिए उन्हें भी दु:खी मान लिया है। ___ आचार्य कहते हैं कि संसारी को स्वभाव से ही दुःख है। चक्रवर्ती
और इन्द्रों का वैभव उनके दुःख की निशानी है, सुख की नहीं। इससे यह सिद्ध हुआ कि जिनके इन्द्रियाँ जीवित हैं, ऐसे परोक्षज्ञानियों के दुःख स्वाभाविक ही है।
यहाँ आचार्य ने इन्द्रियज्ञानवाले को परोक्षज्ञानी एवं अतीन्द्रिय ज्ञानवाले को प्रत्यक्षज्ञानी कहा है।
'इन्द्रियज्ञान ज्ञान नहीं है' - यदि हम सर्वथा ऐसा मानेंगे तो परोक्षज्ञान ज्ञान ही सिद्ध नहीं होगा। अरहंतों के अतीन्द्रियज्ञान है अर्थात् प्रत्यक्षज्ञान है तथा संसारी के इन्द्रियज्ञान अर्थात् परोक्षज्ञान हैं - आचार्यदेव ने यहाँ ऐसा भेद किया है। मति-श्रुतज्ञान परोक्षज्ञान हैं, चाहे वह सम्यग्दृष्टि के हो या मिथ्यादृष्टि के ? यदि सम्यग्दृष्टि को परोक्षज्ञान है तो उसे इन्द्रियज्ञान नहीं है - ऐसा कैसे कहा जा सकता है? ___मतिज्ञान और श्रुतज्ञान दोनों परोक्षज्ञान हैं एवं अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान एकदेश प्रत्यक्ष हैं। अवधिज्ञान तथा मनःपर्ययज्ञान मात्र पर को ही जानते हैं। अतः सम्यग्दृष्टियों को तथा मुनिराजों को आत्मा ।
छठवाँ प्रवचन
१०५ का ज्ञान, सुख तथा अनुभव परोक्ष ही है। जबतक उन्हें केवलज्ञान प्रगट नहीं होता, तबतक वह परोक्ष ही रहता है।
पण्डित टोडरमलजी ने रहस्यपूर्ण चिट्ठी में इसे विस्तार से स्पष्ट किया है। उन्होंने लिखा है कि अनुभव में प्रत्यक्षपना संभव नहीं है। इन्द्रिय प्रत्यक्ष और साव्यवहारिक प्रत्यक्ष तो वह हो ही नहीं सकता। अध्यात्म की अपेक्षा कहें तो उसे अनुभव प्रत्यक्ष कहा जा सकता है; परन्तु वास्तव में वह परोक्ष ही है।
रहस्यपूर्ण चिट्ठी में लिखा है कि अनुभव प्रत्यक्ष में आत्मा उसप्रकार भी दिखाई नहीं देता है; जिसप्रकार आँखों से कोई चीज दिखती है। आँखों से इस रूमाल को देखने में जितनी स्पष्टता होती है, उतनी भी स्पष्टता आत्मा के अनुभव में नहीं होती। रूमाल के प्रदेश प्रत्यक्ष हो रहे हैं, इसके परमाणु दिख रहे हैं; अनुभव में तो आत्मा के प्रदेश भी नहीं दिखते।
६४वीं गाथा के भावार्थ में लिखा है कि 'परोक्षज्ञानियों के स्वभाव से ही दुःख है; क्योंकि उनके विषयों में रति वर्तती है। कभी-कभी तो वे असा तृष्णा की दाह से मरने तक की परवाह न करके क्षणिक इन्द्रिय विषयों में कूद पड़ते हैं। यदि उन्हें स्वभाव से ही दुख न हो तो विषयों में रति ही न होनी चाहिए।'
अग्रिम गाथा में आचार्य इस विषय को और अधिक स्पष्ट करते हैं -
पप्पा इट्टे विसये फासेहिं समस्सिदे सहावेण । परिणममाणो अप्पा सयमेव सुहंण हवदि देहो ।।५।।
(हरिगीत) इन्द्रियविषय को प्राप्त कर यह जीव स्वयं स्वभाव से।
सुखरूप हो पर देह तो सुखरूप होती ही नहीं।।६५।। स्पर्शनादिक इन्द्रियाँ जिनका आश्रय लेती है - ऐसे इष्ट विषयों को पाकर स्वभाव से परिणमन करता हुआ आत्मा स्वयं ही सुखरूप (इन्द्रियसुखरूप) होता है, देह सुखरूप नहीं होती।
49