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प्रवचनसार का सार
दुःख
के
वासना की तीव्रतम जाग्रती बिना संभव नहीं है; उसीप्रकार बिना पंचेन्द्रिय विषयों में रमण करना संभव नहीं है । अतः वे दुःखी ही हैं। जिनमें पंचेन्द्रिय के विषय देखे जाते हैं; वे विषय इस बात के प्रमाण हैं कि वे दुःखी हैं।
कोई आदमी यह कहे कि मैं कभी बीमार नहीं पड़ता; क्योंकि मेरे साथ तीन डॉक्टर हमेशा रहते हैं और एक दवाइयों का बक्सा मैं हमेशा अपने साथ रखता हूँ। उसका यह कहना सत्य नहीं है; क्योंकि दवाइयों का बक्सा एवं डॉक्टरों की उपस्थिति इस बात का प्रतीक है कि वह सदा बीमार रहता है।
ऐसे ही, जो लोग ऐसा कहते हैं कि पंचेन्द्रियों के भोग मुझे उपलब्ध हैं; इसलिए मैं सब ओर से सुखी हूँ; मुझे जो चाहिए; वह मैं खाऊँपिऊँ; जहाँ चाहूँ, वहाँ जाऊँ; काम करूँ या नहीं करूँ; इसप्रकार मुझे पाँचों इन्द्रियों के विषय हमेशा उपलब्ध रहते हैं; इसलिए मैं सुखी हूँ । उनसे आचार्य कहते हैं कि पाँचों इन्द्रियों के विषयों की निरन्तरता तेरे सुखी होने की नहीं, दुःखी होने की निशानी है।
तीर्थंकर ऋषभदेव ८३ लाख पूर्व की आयु की वृद्धावस्था में भी नीलांजना का नृत्य देख रहे थे - यह उनके सुख की निशानी है या दुःख की ?
चक्रवर्ती भरत के ९६ हजार पत्नियाँ थीं वे उनकी सुख की निशानी है या दुःख की ?
भगवान ऋषभदेव की दिव्यध्वनि खिर रही थी और भरत चक्रवर्ती ६० हजार वर्ष के लिए लड़ने के लिए निकल गए। वे सुखी थे या दुःखी ? अरे भाई ! वे दुःखी ही थे; इसलिए तो लड़ने के लिए निकल गए थे। एक साधु धुनि रमाये बैठा था, इतने में कोई एक आदमी आया और उसने साधु के सामने एक पैसा चढ़ाया। उस साधु ने बहुत मना किया हमें पैसे से क्या काम ?
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छठवाँ प्रवचन
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नहीं, महाराज आप रख लो; जिसे सबसे अधिक आवश्यकता हो,
जो सबसे अधिक दुखी हो; उसे दे देना ।
इतना कहकर वह वहाँ से चला गया।
अब साधु का दिमाग आत्मा-परमात्मा से हटकर इस पैसे का क्या करूँ - इसमें उलझ गया। इसप्रकार पैसा ही पैसा उसके ध्यान का ध्येय बन गया ।
हाथी पर सवार एक राजा दूसरे राजा पर चढ़ाई करने के लिए जा रहा था; तब उस साधु ने वह पैसा राजा की ओर जोर से फेंका तो वह पैसा राजा की नाक पर लगा।
तब राजा ने उस साधु से पूछा कि भाई तुमने यह पैसा मेरी नाक पर क्यों मारा ?
उस साधु ने कहा कि जो आदमी यह पैसा चढ़ाकर गया था, उसने यह कहा था कि जिसे सबसे अधिक आवश्यकता हो, जो सबसे अधिक दुखी हो; उसे यह दे देना। मुझे सबसे अधिक आवश्यकतावाले और दुखी आप ही दिखे; क्योंकि सबकुछ होते हुए भी आप दूसरे राजा पर चढ़ाई कर रहे हो। इसका अर्थ यह है, सबसे अधिक आवश्यकता वाले आप ही हो, सबसे अधिक दुखी भी आप ही हो; इसलिए आपको ही............ ।
यह सब इस बात का प्रतीक है कि पंचेन्द्रिय के विषयों की उपलब्धि दुःख ही है। यही बात अगली गाथा में आचार्यदेव कह रहे हैं - जेसिं विसएस रदी तेसिं दुक्खं वियाण सब्भावं । जड़ तं पण हि सब्भावं वावारो णत्थि विसयत्थं ॥ ६४ ॥ ( हरिगीत )
पंचेन्द्रियविषयों में रती वे हैं स्वभाविक दुःखीजन। दुःख के बिना विषविषय में व्यापार हो सकता नहीं । । ६४ ॥ जिन्हें विषयों में रति है, उन्हें दुःख स्वाभाविक जानना चाहिए; क्योंकि यदि वह दुःख स्वाभाविक न हो तो विषयों के लिए व्यापार न हो ।