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प्रवचनसार का सार
से रहित अत्यंत निर्मल है। ऐसे जीवों को जो सुख है, वह एकान्त से सुख ही है, उसमें कथंचित् नहीं लगता है। कथंचित् सुख व कथंचित् दुःख - ऐसा भेद उसमें नहीं है।
छहढाला में भी तीसरी ढाल के प्रथम छन्द में अतीन्द्रियसुख के बारे में लिखा है कि -
'आकुलता शिवमांहि न तातै, शिवमग लाग्यो चहिए।' आकुलता मोक्ष में नहीं है; अत: मोक्षमार्ग में लगना चाहिए। यहाँ ऐसे ही सुख की चर्चा है।
जं केवलं ति णाणं तं सोक्खं परिणमं च सो चेव । खेदो तस्स ण भणिदो जम्हा घादी खयं जादा ।।६०।।
(हरिगीत) अरे केवलज्ञान सुख परिणाममय जिनवर कहा।
क्षय हो गये हैं घातिया रे खेद भी उसके नहीं ।।६०।। जो 'केवल' नामक ज्ञान है - केवलज्ञान है, वही सुख है, वही परिणाम है; क्योंकि उनके घातिकर्म क्षय को प्राप्त हुये हैं; अत: उन्हें खेद नहीं कहा गया है।
आप में २५ किलो वजन ले जाने की ताकत है। यदि आपको ५० किलो ले जाने के लिए कहेंगे तो खेद हो जाएगा। आपमें जितनी जानने की शक्ति है; उतना जानेंगे तो बिना खेद के जानेंगे। आपमें एक दिन में १० गाथा याद करने की शक्ति है तो बिना खेद के याद करेंगे; परन्तु २० गाथा याद करने के लिए कहेंगे तो खेद हो जाएगा।
अब आचार्यदेव अनन्तवीर्य की चर्चा करते हैं। केवलज्ञान के लिए जो कीमत चुकाई है, उसी में अनंतसुख व अनंतवीर्य भी मिल गया।
अनंतसुख को भोगते हैं, अनंतज्ञेयों को जानते हैं; पर उन्हें खेद नहीं होता, थकान नहीं होती। भगवान पसीना से रहित हैं; क्योंकि पसीना श्रम की निशानी है, खेद व थकावट की निशानी है। पसीना का दूसरा
पाँचवाँ प्रवचन नाम श्रमजल है। भगवान के लिए 'श्रमजलरहित' कहा गया है। ___ इसलिए आचार्य कहते हैं कि जो केवल नाम का ज्ञान है, वही सुख है, उससे भिन्न सुख नहीं है; परिणाम भी वही है। कहने का आशय यह है कि अनंतसुख में किसीप्रकार का खेद नहीं होता है। उस अतीन्द्रियसुख का स्वरूप जानना जरूरी है।
जैसे केवलज्ञानी के ज्ञान को हम अपने ज्ञान से नापते हैं; वैसे ही उनके सुख को भी हम अपने सुख से नापते हैं।
टोडरमलजी ने मोक्षमार्गप्रकाशक में मोक्षतत्त्व की भूल के प्रकरण में यही बात बताई है कि अज्ञानी कहता है कि जितना सुख हमें है, उससे अनंतगुणा सुख मोक्ष में है। इसप्रकार वह वर्तमान में जो इन्द्रियजन्य सुख है, उससे गुणनफल लगाता है। मुझे यहाँ एक पत्नी का सुख है तो वहाँ पर अनन्त पत्नियाँ होंगी। यहाँ पर दो रोटियों का सुख है तो वहाँ पर अनंत रोटियों का सुख होगा। इसप्रकार इसने जिस-जिस भोग सामग्री में सुख की कल्पना कर रखी है; उस-उससे गुणनफल लगाता है।
अरे भाई ! तुम्हारे पास जो है, उससे ही तो तुम गुणनफल करोगे। इसलिए कहते हैं कि तुम ऐसा गुणनफल मत करो; क्योंकि अतीन्द्रियसुख की जाति ही जुदी है।
उसकी महिमा बताने के लिए ऐसा कहा; क्योंकि महिमा तो जिससे परिचित होते हैं, उससे ही की जाती है।
सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि में यही तो फर्क है। सम्यग्दृष्टि ने उस मोक्ष के सुख का स्वाद लिया है, भले ही वह अनंतवाँ भाग चखा हो।
छहढाला में कहा है कि - 'यों चिन्त्य निज में थिर भये, तिन अकथ जो आनंद लहयो । सो इन्द्र नाग नरेन्द्र वा, अहमिन्द्र मैं नाहीं कह्यो।' इसप्रकार चिन्तवन करके आत्मस्वरूप में लीन होने पर उन मुनियों
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