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प्रवचनसार का सार इसके सन्दर्भ में यह ४१वीं गाथा और अधिक महत्त्वपूर्ण है -
अपदेसं सपदेस मुत्तममुत्तं च पज्जयमजादं । पलयं गदं च जाणदि तं णाणमदिदियं भणियं ।।४१।।
(हरिगीत) सप्रदेशी अप्रदेशी मूर्त और अमूर्त को।
अनुत्पन्न विनष्ट को जाने अतीन्द्रिय ज्ञान ही ।।४१।। जो ज्ञान अप्रदेशी-एकप्रदेशी, सप्रदेशी-बहुप्रदेशी, मूर्तिक-अमूर्तिक पदार्थों को तथा अनुत्पन्न और नष्ट पर्यायों को जानता है; उसे अतीन्द्रिय ज्ञान कहते हैं।
देश के किसान और मजदूर तो यह जानना चाहते हैं कि उनके लिए रोजी-रोटी और कपड़े का इंतजाम कब होगा? उसके खेत को पानी कब मिलेगा, खेत को बिजली कब मिलेगी?
उसको राजनीति के इस खेल में थोड़ा भी रस नहीं है कि गांधीजी की मूर्ति कहाँ लगेगी और कहाँ नहीं लगेगी ? अम्बेडकर की मूर्ति लगेगी या गांधीजी की ? लोकसभा में किस-किसके फोटो लगेंगे? आर. एस. एस. की शाखा कहाँ लगेगी और कहाँ नहीं ?
इन सब बातों से मजदूर और किसानों को कुछ लेना-देना नहीं है।
किसान तो यह चाहता है कि देश की तरक्की किसप्रकार हो - सभी लोग यह बात करें। आजादी के ५५ वर्ष बाद आज भी हर गरीब को रोटियाँ नहीं मिल पाईं। भूखे व नंगे लोग आज भी हैं। ये राजनेता उनकी तो बात ही नहीं करते और जरा-जरा से मुद्दों पर लड़ते-झगड़ते रहते हैं।
ऐसे ही सारे समाज में कितना अज्ञान है? बच्चों में धार्मिक संस्कार समाप्त होते जा रहे हैं; खान-पान का ठिकाना नहीं रहा है; स्वाध्याय करने के लिए जगह नहीं है; इस मुमुक्षु समाज के बच्चों में संस्कार कब आएँगे, कैसे आएँगे, इस बारे में हमें क्या करना है ? इसपर तो किसी का ध्यान नहीं जाता; पर जिन्हें कुछ काम नहीं है, घरवालों ने धक्का देकर बाहर
चौथा प्रवचन निकाल दिया है - ऐसे कुछ व्यक्ति मंदिर में जाकर बैठ जाते हैं और आत्मा पर को जानता है या नहीं - इस पर बहस करने लगते हैं, पार्टियाँ और ग्रुप्स बन जाते हैं। अरे भाई ! यह कोई समस्या नहीं है, समयसार आदि के स्वाध्याय से यह बात तो अपने आप समझ में आ जाएगी; जिनवाणी के पठन-पाठन से सम्पूर्ण विषयवस्तु स्वतः स्पष्ट हो जाएगी। ___ हमारे पास सर्व समाधानकारक जिनवाणी माता है, गुरुदेवश्री की वाणी है। अत: इस चर्चा से विराम लो और जिनवाणी का गहराई से अध्ययन करो।
इन गाथाओं में सबकुछ साफ-साफ लिखा है; हमें उसे आरंभ से अंत तक पढ़ना चाहिए। हम किसी भी गाथा को उठा लेते हैं और खींच-तान कर चर्चा करने लग जाते हैं।
जो पर्यायें अभी उत्पन्न नहीं हुई हैं तथा जो पर्यायें प्रलय को प्राप्त हो गई हैं; जो ज्ञान इन सबको जानता है, उसे ही अतीन्द्रिय ज्ञान कहते हैं।
जो ज्ञान अप्रदेशी-एकप्रदेशी, सप्रदेशी-बहुप्रदेशी, मूर्तिकअमूर्तिक पदार्थों को तथा अनुत्पन्न और नष्ट पर्यायों को जानता है; उसे अतीन्द्रियज्ञान कहते हैं।
जो अकेले आत्मा को जाने उस ज्ञान का नाम अतीन्द्रिय ज्ञान है - ऐसा यहाँ कहाँ लिखा है ? छहों द्रव्यों की पर्यायों को जाने उसका नाम भी अतीन्द्रिय ज्ञान ही है।
फिर भी यह कहता है कि अतीन्द्रिय ज्ञान आत्मा को जानता है और इन्द्रियज्ञान पर को जानता है।
अरे भाई ! इन्द्रियज्ञान में तो मतिश्रुतज्ञान का नाम है। मतिश्रुतज्ञान का विषय तो छहों द्रव्यों की असर्व पर्यायें हैं। जैसाकि मोक्षशास्त्र में लिखा है- 'मतिश्रुतयोर्निबन्धों द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु ।' फिर यहाँ मतिज्ञान व केवलज्ञान में स्व-पर का भेद कहाँ है? हाँ, यह बात अवश्य
माहा
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