SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 17
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दूसरा प्रवचन प्रवचनसार का सार हुई हैं, उन्हें स्वयं ने ही उत्पन्न किया है; कर्म का उदय तो उसमें निमित्तमात्र है। जिसप्रकार सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति में देशनालब्धि मात्र निमित्त है; उसीप्रकार यहाँ कर्म का उदय भी मात्र निमित्त ही है। यह जाननेवाला आत्मा यदि शुद्धोपयोगी हो तो उसे अतीन्द्रियज्ञान और अतीन्द्रिय-सुख की प्राप्ति होती है और यदि शुभोपयोगी हो तो उसे स्वर्गसुख की प्राप्ति होती है - ऐसा कहकर आचार्यदेव ने यहाँ आगे आनेवाले चार अधिकारों के बीज डाल दिये हैं। सर्वप्रथम शुद्धोपयोगाधिकार । इसके फल में जो अतीन्द्रियज्ञान प्राप्त होता है, उसका वर्णन जिसमें है; वह अतीन्द्रियज्ञानाधिकार; तथा इसी के फल में जो अतीन्द्रिय सुख प्राप्त होता है; उसका वर्णन करनेवाला अतीन्द्रियसुखाधिकार; जिससे स्वर्गसुख मिलता है - ऐसा शुभपरिणामाधिकार । इसप्रकार इस ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार में आचार्यदेव ने उक्त चार अधिकार बनाए हैं। अपने आत्मा को स्वयं देखने-जानने का नाम ही शुद्धोपयोग है। जिसने देखा वह भी आत्मा है, जिसे देखा वह भी आत्मा है, इसमें पर का रंचमात्र भी कर्तृत्व नहीं है; अत: यह आत्मा स्वयंभू है। भगवान को प्राप्त जो अनंतज्ञान एवं अनंतसुख है; वह कैसा है, कबतक रहेगा ? यह बात आचार्यदेव विरोधाभास अलंकार के रूप में इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं - भंगविहूणो य भवो संभवपरिवजिदो विणासो हि। विजदि तस्सेव पुणो ठिदिसंभवणाससमवाओ ।।१७।। (हरिगीत) यद्यपि उत्पाद बिन व्यय व्यय बिना उत्पाद है। तथापी उत्पादव्ययथिति का सहज समवाय है ।।१७।। यद्यपि उन भगवान के विनाश रहित उत्पाद तथा उत्पाद रहित विनाश है; तथापि उनके ध्रौव्य, विनाश और उत्पाद की एक साथ विद्यमानता भी है। हे भगवान! तुमने ऐसा उत्पाद किया कि जिसका कभी नाश नहीं होगा और तुमने ऐसा नाश किया कि जिसका कभी उत्पाद नहीं होगा। ___ इस पर हम कहते हैं कि वस्तु तो उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक है। यदि पूर्व पर्याय का विनाश होता है तो उत्तर पर्याय का उत्पाद होता ही है। इसके लिए हम यह उदाहरण भी देते हैं कि जब एक आदमी को नुकसान हुआ तो दूसरे आदमी को फायदा होता ही है। जमीन के भाव कम हुए तो जिसके पास जमीन थी, उसे नुकसान हुआ एवं जिसने खरीदी उसे फायदा हुआ। जो जन्मेगा, वह मरेगा अथवा जो मरा है, वह अगले समय में कहीं न कहीं जन्मेगा ही। जन्म मृत्यु के बिना नहीं होता एवं मृत्यु जन्म के बिना नहीं होती। ___मान लो, कदाचित् ऐसा हुआ कि जन्म के बिना मरण एवं मरण के बिना जन्म हुआ तो उसका स्वभाव उत्पाद-व्यय-ध्रुवत्व कहाँ रहा ? इन तीनों का अस्तित्व वहाँ कैसे रहा ? यहाँ तो यह कहा जा रहा है कि उत्पाद के बिना नाश एवं नाश के बिना उत्पाद हुआ एवं ऐसी स्थिति में भी उत्पाद-व्यय-ध्रुवत्व कायमरहा। इसप्रकार आचार्यदेव ने जिसमें विरोध का आभास हो - ऐसे विरोधाभास अलंकार का प्रयोग किया है। इसमें कहा है कि हे भगवन! आपने ऐसा केवलज्ञान एवं अतीन्द्रिय आनंद उत्पन्न किया कि जिसका अनंतकाल तक नाश नहीं होगा। अभी हमें जो ज्ञान एवं सुख है, वह पल-पल में बदल जाता है, क्षणिक है। हम एक सैकिन्ड में ही यह भूल जाते हैं कि 'मैंने क्या कहा था ?' परन्तु हे भगवान ! तुमने शुद्धोपयोग के फल में ऐसा अनंतज्ञान
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy