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प्रवचनसार का सार
३०८ अकेला ही बंध है; ऐसा देखना (मानना) चाहिये; क्योंकि निश्चय का विषय शुद्ध द्रव्य है।
देखो, यहाँ अकेले आत्मा को बंधरूप कहा है और इस गाथा के बाद वह गाथा आती है कि जिसकी टीका में यह लिखा है कि मोहराग-द्वेषरूप परिणमन आत्मा का है और इन मोह-राग-द्वेष का कर्त्ता भी भगवान आत्मा है।
ध्यान देने की बात यह है कि सर्वत्र तो मोह-राग-द्वेष का कर्त्ता आत्मा को अशुद्धनिश्चयनय से कहा है और यहाँ इस गाथा की टीका में शुद्धनिश्चयनय से कहा है। मैंने आजतक जितनी भी जिनवाणी देखी है, उनमें मुझे यह एक ही प्रयोग मिला है; जिसमें मोह- राग-द्वेष का कर्त्ता आत्मा को शुद्धनिश्चयनय से कहा है। वह गाथा इसप्रकार है -
एसो बंधसमासो जीवाणं णिच्छयेण णिहिट्ठो। अरहंतेहिं जदीणं ववहारो अण्णहा भणिदो ।।१८९ ।।
(हरिगीत ) यह बंध का संक्षेप जिनवरदेव ने यतिवृन्द से।
नियतनय से कहा है व्यवहार इससे अन्य है ।।१८९।। यह जीवों के बंध का संक्षेप निश्चय से अरिहंत भगवान ने यतियों से कहा है और व्यवहार अन्य प्रकार से कहा है।
इस गाथा की जिस टीका में आचार्य अमृतचन्द्र ने आत्मा को रागद्वेष का कर्ता शुद्धनिश्चयनय से कहा है, उस टीका का भाव इसप्रकार है
"राग परिणाम ही आत्मा का कर्म है, वही पुण्य-पापरूप द्वैत है। आत्मा राग परिणाम का ही कर्ता है, उसका ही ग्रहण करने वाला है
और उसी का त्याग करनेवाला है; यह, शुद्धद्रव्य का निरूपणस्वरूप निश्चयनय है।
और जो पुद्गल परिणाम आत्मा का कर्म है, वही पुण्य-पापरूप
उन्नीसवाँ प्रवचन द्वैत है, आत्मा पुद्गल परिणाम का कर्ता है, उसका ग्रहण करनेवाला
और छोड़नेवाला है - ऐसा जो नय वह अशुद्धद्रव्य के निरूपणस्वरूप व्यवहारनय है।
यह दोनों (नय) हैं; क्योंकि शुद्धरूप और अशुद्धरूप - दोनों प्रकार से द्रव्य की प्रतीति की जाती है; किन्तु यहाँ निश्चयनय साधकतम (उत्कृष्ट साधक) होने से ग्रहण किया जाता है; क्योंकि साध्य के शुद्ध होने से द्रव्य के शुद्धत्व का द्योतक (प्रकाशक) होने से निश्चयनय ही साधकतम है; किन्तु अशुद्धत्व का द्योतक व्यवहारनय साधकतम नहीं है।'
'शुद्धद्रव्य का निरूपण निश्चयनय है' यहाँ शुद्धनिश्चयनय से इसलिए कहा है; क्योंकि शुद्धद्रव्य अर्थात् पर का नहीं है अर्थात् पर से इसमें कुछ गड़बड़ी नहीं होती। पर का संयोग नहीं है, यही इस शुद्धद्रव्य की शुद्धता है, इसलिए शुद्धद्रव्य का निरूपण निश्चयनय है।
टीका में जो यह कहा है कि यह दोनों नय हैं' इसका तात्पर्य यह है कि इन दोनों प्रकार के नयों की सत्ता है। इसप्रकार इस गाथा में रागादिक का कर्ता भगवान आत्मा को शुद्धनिश्चयनय से कहा है और द्रव्यकर्म का कर्ता अशुद्धनिश्चयरूप व्यवहारनय से कहा है।
अरे भाई ! 'यह प्रवचनसार में ही लिखा हैं' - ऐसा नहीं है। समयसार में भी अशुद्धनिश्चयनय से ही सही पर रागादि का कर्ता आत्मा को बताया है। लिखा है - 'य: परिणमति स कर्ता' अर्थात् जो जिसरूप परिणमित होता है, वह उस परिणमन का कर्त्ता होता है। आत्मा रागरूप परिणमित होता है तो आत्मा राग का कर्ता है। सम्यग्दृष्टि को रागरूप परिणमन है; लेकिन राग में कर्तृत्वबुद्धि नहीं है तथा उस राग में कर्तृत्वबुद्धि, ममत्वबुद्धि नहीं होने से समयसार में अकर्ता भी कहा है। ___इसप्रकार यह परमागम की एक ही ऐसी गाथा है, जिसमें मोहराग-द्वेष का कर्ता आत्मा को शुद्धनिश्चयनय से कहा है।
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