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प्रवचनसार का सार आत्मा का आकार जानना तो सम्भव है; क्योंकि केवलज्ञानी के ज्ञान में तो आकार जानने में आ ही रहा है; लेकिन कहना केवलज्ञानी को भी सम्भव नहीं है। इसप्रकार भगवान आत्मा अनिर्दिष्टसंस्थानवाला है।
आचार्य जीव को अनिर्दिष्टसंस्थान युक्त कहने के बाद कहते हैं कि यह आत्मा अलिंगग्रहण है अर्थात् इन्द्रियों से पकड़ में आनेवाला नहीं है। ___कोई ऐसा प्रश्न करें कि शास्त्रों में बार-बार ऐसा कहा जाता है कि अपनी आत्मा को जानो, तो आत्मा में वे ऐसे कौन से चिन्ह हैं; जिनसे आत्मा को ग्रहण करें ? इसी प्रश्न के समाधान के लिए इस गाथा में आत्मा को अलिंगग्रहण कहा गया है।
लिंग शब्द का अर्थ चिन्ह होता है। स्त्रीलिंग, पुल्लिंग और नपुंसकलिंग में भी अन्त में लगे लिंग शब्द चिन्ह अर्थ को ही बताते हैं। मनुष्य जाति में स्त्रीलिंग, पुल्लिंग और नपुंसकलिंग के भेद से तीन प्रकार के भेद हैं। इन तीनों में मुख्यरूप से जिन अंगों में अन्तर है, उन अंगों को ही लिंग शब्द से कहा जाता है। नाक, कान आदि तो स्त्री, पुरुष और नपुंसक में समान ही हैं। इसप्रकार पहिचान के चिन्ह को ही लिंग कहते हैं।
भगवान आत्मा चिन्हों से पकड़ में आनेवाला नहीं है, वह तो अलिंगग्रहण है। अब यहाँ पर आचार्यदेव ने लिंग शब्द के अलगअलग तरीके से बीस अर्थ किए हैं। लिंग का अर्थ अनुमान भी होता है; अत: भगवान आत्मा अनुमान से पकड़ में नहीं आएगा आदि । इसप्रकार वह भगवान किन-किन से पकड़ में नहीं आएगा, उसके लिए अलिंगग्रहण के बीस बोल हैं।
यहाँ अलिंगग्रहण के स्थान पर अलिंगग्राह्य शब्द नहीं लिया; क्योंकि अलिंगग्रहण शब्द दोनों ओर प्रयुक्त हो सकता है। इसी आधार से उन्होंने अलिंगग्रहण के बीस अर्थ निकाले हैं।
जिसप्रकार ज्ञान शब्द जानने रूप क्रिया के रूप में भी है और जानने रूप गुण के रूप में भी है और ज्ञान जिस आत्मा का गुण है, उस आत्मा
अठारहवाँ प्रवचन
२८७ के लिए भी ज्ञान शब्द का प्रयोग होता है। इसप्रकार ज्ञान का अर्थ आत्मा भी है, ज्ञान गुण भी है और जानने रूप क्रिया भी है।
सर्वार्थसिद्धि में भी कहा है, जिसके द्वारा जाना जाए, उसे भी ज्ञान कहते हैं और जिसके आधार से जाना जाए, उसे भी ज्ञान कहते हैं एवं जाननेरूप क्रिया को भी ज्ञान कहा जाता । कर्ता के रूप में भी ज्ञान शब्द का प्रयोग होता है, करण एवं अधिकरण के रूप में भी ज्ञान शब्द का प्रयोग होता है तथा जाननक्रिया के रूप में भी ज्ञान का प्रयोग होता है।
इसीप्रकार ग्रहण शब्द भी सामान्य है; इसीलिए आचार्यदेव ने अलिंगग्रहण के बीस अर्थ किये हैं।
इसप्रकार आचार्यदेव ने इस गाथा में यही कहा है कि चिन्हों से भगवान आत्मा पकड़ में आनेवाला नहीं है। जब अपने ज्ञानोपयोग को सीधे भगवान आत्मा में लगाएंगे, तभी भगवान आत्मा जाना जायेगा।
गाथा १७२ में जीव को अरस, अरूप, अगंध, अव्यक्त, चेतनागुण युक्त, अशब्द, अलिंगग्रहण और अनिर्दिष्ट संस्थान कहने के बाद गाथा १७३ में यह समस्या प्रस्तुत करते हैं कि अमूर्त आत्मा के, स्निग्धरुक्षत्व का अभाव होने से बंध कैसे हो सकता है ?
जब भगवान आत्मा शुद्ध, बुद्ध, निरंजन एवं निराकार है तो वह कर्मों के चक्कर में कैसे फँस गया ? अर्थात् आत्मा से शरीर का संयोग कैसे हो गया? वे कौन से कारण हैं, जिनसे इस आत्मा को शरीर समझ लिया गया।
जयपुर में एक नाई राजा के यहाँ रोज दाढी बनाने जाया करता था एवं उनसे गप्पे भी लगाया करता था; क्योंकि राजा साहब उस समय हल्के मूड में होते थे। सभी लोग उसे खबासजी कहते थे। एक बार राजा साहब उससे किसी बात पर प्रसन्न हो गए और उससे कोई वरदान माँगने को कहा। तब खबासजी ने महाराजजी से कहा कि - ___ “हुजूर! मैं तो बस इतना चाहता हूँ कि अब जब आपकी सवारी निकलेगी, तब मैं भी भीड़ में दर्शनों के लिए खड़ा रहूँगा; उस समय जब
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