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प्रवचनसार का सार
शुद्धोपयोग से प्रसिद्ध जीवों के अतिशय, आत्मोत्पन्न, विषयातीत, अनुपम, अनन्त और अखण्डित सुख होता है।
शुद्धोपयोग ही साक्षात्धर्म है और उसका फल निराकुल सुख है। उस जाति के सुख की महिमा छहढाला में भी गाई गई है, जो इसप्रकार है - यो चिन्त्य निज में थिर भये, जिन अकथ जो आनन्द लह्यो । सो इन्द्र नाग नरेन्द्र वा, अहमिन्द्र के नाहीं कह्यो ।। शुद्धोपयोगी संतों का स्वरूप १४वीं गाथा में इसप्रकार समझाया गया है -
सुविदिदपयत्थसुत्तो, संजमतवसंजुदो विगदरागो ।
समणो समसुहदुक्खो, भणिदो सुद्धोवओगो त्ति ।। १४ । । ( हरिगीत )
हो वीतरागी संयमी तपयुक्त अर सूत्रार्थ विद् । शुद्धोपयोगी श्रमण के समभाव भवसुख- दुक्ख में ।। १४ । । पदार्थों और सूत्रों को अच्छी तरह जाननेवाले, संयम और तप संपन्न, रागादि से रहित, सुख-दुःख में समभावी श्रमण शुद्धोपयोगी कहे गये हैं।
यहाँ सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि शुद्धोपयोगी श्रमण और शुभोपयोगी श्रमण ऐसे दो प्रकार के साधु नहीं है। साधु तो एक ही हैं; शुद्धोपयोग के काल में वे ही शुद्धोपयोगी हैं एवं शुभोपयोग के काल में; जब वे शिष्यों को पढ़ाते हैं, शास्त्र लिखते हैं, तब वे ही शुभोपयोगी होते हैं । छटवें- सातवें गुणस्थान में झूलनेवाले संत जब सातवें गुणस्थान में होते हैं, तब शुद्धोपयोगी और जब छटवें गुणस्थान में होते हैं, तब शुभोपयोगी होते हैं।
परद्रव्यों से हटकर उपयोग का आत्मसन्मुख होना ही शुद्धोपयोग है। प्रश्न- यदि ऐसा है तो यहाँ शुद्धोपयोगी के स्वरूप में पदार्थों और सूत्रों को जाननेवाले ऐसा क्यों कहा है ?
पदार्थों एवं सूत्रों को अच्छी तरह जाननेवाले ऐसा कहकर आचार्य
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दूसरा प्रवचन
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शुभोपयोग में जो जानने की प्रक्रिया है, उसे नहीं बता रहे हैं; अपितु यह बताया जा रहा है कि शुद्धोपयोगी वही होगा, जिसे तत्त्वार्थ का यथार्थ ज्ञान हो, यथार्थ श्रद्धान हो । यद्यपि शुद्धोपयोग के काल में आस्रव का ज्ञान उपयोगरूप नहीं होता; तथापि आस्रव हेय हैं, आस्रव मैं नहीं हूँ - ऐसा लब्धिरूप ज्ञान शुद्धोपयोग के काल में भी विद्यमान रहता है ।
अभी हम प्रवचनसार पढ़ रहे हैं तो इसकी विषयवस्तु में हमारा उपयोग लग रहा है। क्या इसी समय हमें समयसार का ज्ञान नहीं है ? यदि समयसार का ज्ञान है तो आत्मज्ञान क्यों नहीं है ?
हमारे लब्धिज्ञान में अभी जो भी उपलब्ध है, उन सबका ज्ञान हमें है। लब्धि व उपयोग दोनों ही प्रगट पर्याय के ही नाम है। शक्ति का नाम लब्धि नहीं है ।
जब आत्मा आत्मानुभव कर रहा होता है; तब भी उसे सात तत्त्वों का ज्ञान उपलब्ध रहता है और जब वह पर का ज्ञान कर रहा है, तब भी उसे सात तत्त्वों का ज्ञान रहता है। जैसे खाता-पीता सम्यग्दृष्टि भी सम्यग्दृष्टि है और आत्मा का अनुभव करनेवाला सम्यग्दृष्टि भी सम्यग्दृष्टि है।
भगवान आत्मा को सम्यक्तया जाना है, अनुभव में भी जाना है; किन्तु अभी अनुभव नहीं है तो भी आत्मज्ञान मौजूद है; ऐसा तत्त्वज्ञानी जीव शुद्धोपयोग का पात्र होता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि वह शुद्धोपयोगी है; परन्तु शुद्धोपयोग के लिए आवश्यक जो शर्त है, उसे वह पूर्ण करता है।
जिसप्रकार सम्यग्दर्शन के लिए आवश्यक शर्त के रूप में आचार्य समन्तभद्र ने देव-शास्त्र-गुरु की श्रद्धा को शामिल किया; उसीप्रकार कुन्दकुन्दाचार्य ने यहाँ तत्त्वार्थ को जाननेवाला यह शर्त शुद्धोपयोग के लिए रखी है।
शुद्धोपयोग के काल में भी उसे संपूर्ण पदार्थों को जानते रहना