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________________ प्रवचनसार का सार २६९ (हरिगीत) देह मन वाणी न उनका करण या कर्ता नहीं। ना कराऊँ मैं कभी भी अनुमोदना भी ना करूँ।।१६०।। मैं न देह हूँ, न मन हूँ और न वाणी हूँ; उनका कारण नहीं हूँ, कर्ता नहीं हूँ, करानेवाला नहीं हूँ और कर्ता का अनुमोदक भी नहीं हूँ। इस गाथा में देह, मन और वाणी - इन तीनों से एकत्व तोड़ने की बात कही है। ध्यान रहे यहाँ पर राग से एकत्व तोड़ने की बात नहीं कही; लेकिन मैं ऐसा भी नहीं कहना चाहता कि राग से एकत्व नहीं तोड़ना; पर बात यह है कि जिस गाथा में जिसका वर्णन आया हो - वहाँ वही बात कहनी चाहिए। मैं शरीरादि परद्रव्यों का न कर्ता हूँ, न कारयिता हूँ और न अनुमन्ता हूँ; इसप्रकार शरीरादि परद्रव्यों के प्रति कृत, कारित एवं अनुमोदना से एकत्व तोड़ने की बात इस गाथा में कही गई है; रागादिक से एकत्व तोड़ने की नहीं। शरीर, वाणी और मन का परद्रव्यपना निश्चित करनेवाली १६१वीं गाथा इसप्रकार है - देहो य मणो वाणी पोग्गलदव्वप्पग त्ति णिहिट्ठा । पोग्गलदव्वं हि पुणो पिंडो परमाणुदव्वाणं ।।१६१।। (हरिगीत) देह मन वच सभी पुद्गल द्रव्यमय जिनवर कहे। ये सभी जड़ स्कन्ध तो परमाणुओं के पिण्ड हैं ।।१६१।। देह, मन और वाणी पुद्गलद्रव्यात्मक हैं - ऐसा वीतरागदेव ने कहा है और वे पुद्गलद्रव्य परमाणुद्रव्यों का पिण्ड हैं। ___ इस गाथा में यह स्पष्ट किया गया है कि जो स्कन्ध हमें दिखाई देते हैं; वे परमाणुओं के पिण्ड हैं। इसप्रकार यह शरीर भी पुद्गल परमाणुओं का पिण्ड है। इसके बाद आत्मा के परद्रव्यत्व का अभाव और परद्रव्य के कर्तृव का अभाव सिद्ध करते हैं - सत्रहवाँ प्रवचन णाहं पोग्गलमइओ ण ते मया पोग्गला कया पिंडं । तम्हा हि ण देहोऽहं कत्ता वा तस्य देहस्य ।।१६२।। (हरिगीत) मैं नहीं पुद्गलमयी मैंने ना बनाया हैं इन्हें । मैं तन नहीं हूँ इसलिए ही देह का कर्ता नहीं ।।१६२।। मैं पुद्गलमय नहीं हूँ और वे पुद्गल मेरे द्वारा पिण्डरूप नहीं किए गए हैं; इसलिए मैं देह नहीं हूँ, तथा उस देह का कर्त्ता नहीं हूँ। इस गाथा की टीका इसप्रकार है - "प्रथम तो जो यह प्रकरण से निर्धारित पुद्गलात्मक शरीर नामक परद्रव्य है - जिसके भीतर वाणी और मन का समावेश हो जाता है - वह मैं नहीं हूँ; क्योंकि अपुद्गलरूप मेरा पुद्गलात्मक शरीररूप होने में विरोध है और इसीप्रकार उस (शरीर) के कारण द्वारा, कर्ता द्वारा, कर्ता के प्रयोजक द्वारा या कर्ता के अनुमोदक द्वारा शरीर का कर्ता मैं नहीं हूँ; क्योंकि मैं अनेक परमाणुओं द्रव्यों के एक पिण्ड पर्यायरूप परिणाम का अकर्ता - ऐसा मैं अनेक परमाणुद्रव्यों के एकपिण्डपर्यायरूप परिणामात्मक शरीर का कर्त्तारूप होने में सर्वथा विरोध है।" तात्पर्य यह है कि जो इस गाथा में शरीर की बात चल रही है, वह मात्र शरीर की ही नहीं है; अपितु प्रकरण के अनुसार उसमें मन और वाणी भी सम्मिलित हैं। इस गाथा में तो देह के संबंध में यह लिखा है कि मैं पुद्गलमयी देह नहीं हूँ, जबकि पूर्व गाथा में देह, मन और वाणी - इन तीनों की चर्चा की थी; इसलिए प्रकरण के अनुसार यहाँ पर मन और वाणी का भी ग्रहण करना चाहिए। इसप्रकार इस गाथा में आत्मा के परद्रव्यत्व का अभाव और परद्रव्य के कर्तृत्व का अभाव सिद्ध किया है। इसके बाद गाथा १६३ से १६८ तक का जो प्रकरण है, उसमें यही बताया गया है कि यह आत्मा के साथ संबंद्ध शरीर पुद्गलपरमाणुओं से स्कन्धरूप कैसे परिणमित हो गया? 131
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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