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प्रवचनसार का सार अब ज्ञानचेतना की बात करते हैं। अर्थविकल्प वह ज्ञान है । स्वपर के विभागपूर्वक अवस्थित विश्व अर्थ है। उसके आकारों का अवभासन विकल्प है। जिसप्रकार दर्पण के निज विस्तार में स्व और पर आकार एक ही साथ प्रकाशित होते हैं; उसीप्रकार जिसमें एक ही साथ स्व-पराकार अवभासित होते हैं - ऐसा अर्थविकल्प ही ज्ञान है।
इसमें आचार्य ने सम्पूर्ण विश्व के स्व और पर - इसप्रकार दो विभाग कर भेदविज्ञान की बात की है। सम्पूर्ण विश्व को स्व और पर के रूप में जानना यही ज्ञान है। स्व और पर रूप में विभाजित सम्पूर्ण विश्व ही अर्थ है। देखो ! यहाँ आचार्यदेव ने ज्ञान का स्वरूप ही विकल्पात्मक बताया है।
स्व और पर के रूप में विभक्त सम्पूर्ण जगत के आकारों का अवभासन विकल्प है, अर्थविकल्प है, ज्ञान है । दर्पण का उदाहरण देकर आचार्यदेव ने यहाँ ज्ञान के लिए एक शर्त रखी है कि ज्ञान में स्व और पर दोनों एकसाथ मालूम पड़ना चाहिए, तभी वह ज्ञान है।
मुमुक्षुओं में यह चर्चा रहती है कि दो पदार्थों का एक साथ ज्ञान नहीं हो सकता है। अरे भाई ! यह बहुत ही स्थूल कथन है। मैं आपसे पूछता हूँ कि ये अंगुलियाँ कितनी हैं - दो हैं तो एक साथ दो दिख रही हैं न? आगे जो २०० व्यक्ति बैठे हैं; वे भी मुझे एकसाथ दिखाई दे रहे हैं। यदि एकसाथ दिखना नहीं होवे तो प्रमाण नामक ज्ञान ही नहीं रहेगा।
जिसप्रकार दर्पण में स्व और पर दोनों एकसाथ प्रतिबिम्बित होते हैं; उसीप्रकार हर ज्ञान में स्व और पर दोनों एकसाथ प्रतिबिम्बित होते हैं। इसमें ज्ञानी और अज्ञानी दोनों के ज्ञान समाहित हैं। ___ हमने पर को जाना; इसलिए स्व जानने में नहीं आयेगा - ऐसा है ही नहीं। यहाँ आचार्य ने ज्ञान की परिभाषा देते हुए कहा है कि जिसमें स्व और पर एकसाथ प्रतिभासित होते हैं, वह ज्ञान है। ये मैं हूँ और 'ये मैं नहीं हूँ' जहाँ ऐसा स्व-पर के भेदपूर्वक जानना होता है, वह ज्ञान
चौदहवाँ प्रवचन
२२३ है; यह अज्ञानियों का प्रकरण नहीं है। यह ज्ञानचेतना का प्रकरण है, यहाँ ज्ञानचेतना की परिभाषा दी है।
ज्ञानचेतना को कई घंटों समझाने के बाद भी लोग यह कहते हुए पाये जाते हैं कि - ‘एकसाथ दो को तो जान नहीं सकते' अरे ! यह तो ऐसा ही है कि जैसे कोई प्रवचन कर रहा हो और कुछ लोग बातें कर रहे हों; तब प्रवचनकार कहता है कि प्रवचन सुनिएँ अथवा बातें कीजिए - दो काम एक साथ नहीं हो सकते हैं - यह इसीप्रकार का स्थूल कथन है।
जैसे छात्रों को यह सलाह दी जाती है कि भाई! तुम अंग्रेजी पढ़ो अथवा धर्म पढ़ो। मेडिकल में जाओ या इंजिनियरिंग पढ़ लो; धर्म कर लो या धंधा कर लो, दो काम एकसाथ नहीं हो सकते हैं।
कहा जाता है किदो मुँह सुई सिये न कन्था, दो मुख पंछी चले न पंथा। दोय काम नहीं होय सयाने, विषय-भोग अरु मोक्ष भी जाने।।
पाँचवें गुणस्थान में सम्यग्दर्शन भी विद्यमान है, एकदेश संयम भी है एवं भूमिका के अनुसार विषयभोग भी हैं। जोलौ अष्टकर्म को विनाश नाही सर्वथा।
तोलौ अंतर आत्मा में धारा दोय वरनी ।। एक ग्यानधारा एक सुभासुभ कर्मधारा,
दुहूं की प्रकृति न्यारी न्यारी न्यारी धरनी ।। इतनौ विसेस जु करमधारा बंधरूप,
पराधीन सकति विविध बंध करनी।। ग्यानधारा मोखरूप मोख की करनहार,
दोख की हरनहार भौ समुद्र-तरनी।।' जबतक अष्टकर्म का पूर्णत: नाश नहीं हुआ है, तबतक अंतरात्मा ज्ञानधारा एवं शुभाशुभ कर्मधारा दोनों एकसाथ चलती हैं।
छठवें गुणस्थान में यह जीव शुभभाव में रहता है; फिर भी उसके
छठव गुणा १. पण्डित बनारसीदास, नाटक समयसार, पुण्य-पाप एकत्वद्वार, छन्द-१४
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