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प्रवचनसार का सार
जिसका स्वरूप से और पररूप से युगपत् कथन अशक्य है; वह अवक्तव्य है। भाई ! एकसाथ दोनों का कथन कैसे संभव है ? जब 'है' बोलेंगे तब 'नहीं है' नहीं बोल सकते हैं और जब 'नहीं हैं' बोलेंगे तो 'है' नहीं बोल सकते हैं।
वस्तु में दोनों धर्म एकसाथ रहते हैं और वस्तु में दोनों धर्मों के एकसाथ रहने में कोई समस्या भी नहीं है। समस्या उनके कथन में है; इसलिए कहने में क्रम पड़ता है।
प्रवचनसार में ४७ नयों के प्रकरण में सप्तभंगी की चर्चा की गई है। उसमें अवक्तव्य की चर्चा करते हुए कहा है कि आत्मा में एक अवक्तव्य नामक धर्म है और उस धर्म को जो नय विषय बनाता है, वह अवक्तव्यनय है। आत्मा में एक अस्ति नामक धर्म है, जिसे अस्तिनय विषय बनाता है। आत्मा में नास्ति नामक धर्म है, जिसे नास्तिनय विषय बनाता है।
अब, आचार्य पाँचवें बोल की चर्चा करते हैं, जो स्वरूप से सत् और स्वरूप-पररूप से युगपत् अवक्तव्य है; इसप्रकार अस्ति अवक्तव्य है। इसमें सत् और अवक्तव्य दोनों अपेक्षाएँ लगाई हैं।
स्वरूप से सत् तथा स्वरूप और पररूप से युगपत् बोलना असंभव है; इसलिए उसे अस्ति अवक्तव्य कहा गया है। ऐसा नहीं है कि अस्ति कहना संभव नहीं है; इसलिए अस्ति अवक्तव्य भंग है; अपितु जिसप्रकार सत् और असत् का मिला हुआ अस्ति-नास्ति भंग है - ऐसे ही सत् अर्थात् अस्ति और अवक्तव्य का यह मिश्रित भंग है। जिसप्रकार अस्ति अवक्तव्य है - यह मिला हुआ भंग है; उसीप्रकार असत् और अवक्तव्य का मिला हुआ नास्ति अवक्तव्य भंग है और सत्, असत् तथा अवक्तव्य से मिला हुआ अस्ति नास्ति अवक्तव्य भंग है।
अस्ति-नास्ति, एक-अनेक, भिन्न-अभिन्न, नित्य-अनित्य आदि धर्मयुगलों में सप्तभंगी का प्रयोग होता है।
गाथा ११६ की इन मार्मिक पंक्तियों को देखते हैं -
तेरहवाँ प्रवचन
___२१३ __ "अब, जिसका निर्धार करना है, इसलिए जिसे उदाहरणरूप बनाया गया है - ऐसे जीव की मनुष्यादि पर्यायें क्रिया का फल हैं; इसलिए उनका अन्यत्व (अर्थात् वे पर्यायें बदलती रहती हैं इसप्रकार) प्रकाशित करते हैं।"
इसमें आचार्य यह मर्म की बात बता रहे हैं कि असमानजातीय द्रव्यपर्याय को इसमें उदाहरण बनाया है, उसी पर वजन दिया है। इसमें 'देव, तिर्यंच, नारकी ये मैं नहीं हूँ' - यह कहा है। केवलज्ञान, सम्यग्दर्शन आदि को इसलिए नहीं लिया; क्योंकि सर्वप्रथम यह निश्चित करना अनिवार्य है कि 'मैं मनुष्य हैं या नहीं।' हमारी ९९% समस्याएँ देहादिक में एकत्वबुद्धि की ही हैं; क्योंकि मैं पंडित हूँ' 'मैं हुकमचन्द हूँ' 'मैं मनुष्य हूँ' 'मैं जैनी हूँ।' - ऐसी मान्यता हमारी समस्या है। सम्पूर्ण हिन्दुस्तान में 'मैं सम्यग्दर्शन हूँ' 'मैं केवलज्ञान हूँ' - ऐसा माननेवाले कितने मिलेंगे?
सब लोग इसप्रकार तो कहते हैं कि मैं केवलज्ञानस्वभावी हूँ; लेकिन कोई ऐसा नहीं कहता है कि मैं केवलज्ञान हूँ।' जब मैं केवलज्ञानस्वभावी हूँ - ऐसा कहा जाता है, तब उसमें केवल का अर्थ 'मैं रागस्वभावी नहीं हूँ' 'मैं जड़स्वभावी नहीं हूँ' - यह है। यहाँ केवल से तात्पर्य केवलज्ञान से नहीं है। यहाँ राग का निषेध है। राग मेरा विभाव है, स्वभाव नहीं है; इसलिए मैं केवल ज्ञानस्वभावी हूँ।
शास्त्र में ऐसे उल्लेख बहुत मिलेंगे कि 'नाहं देहो'; परंतु ऐसे कम ही उल्लेख मिलते हैं कि 'नाहं केवलज्ञानं' 'नाहं सम्यग्दर्शन' । यहाँ हम यह नहीं कहना चाहते हैं कि तुम सम्यग्दर्शन से अहंबुद्धि करो; परंतु यह कहते हैं कि त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा में अहंबुद्धि करने का नाम ही सम्यग्दर्शन है। यदि 'मैं' सम्यग्दर्शन होता तो सम्यग्दर्शन को अनादि से होना चाहिए था; क्योंकि मैं अनादि से हूँ।
आचार्य कहते हैं कि यह शत-प्रतिशत सत्य है कि 'सम्यग्दर्शन मैं
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