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________________ २०८ प्रवचनसार का सार पयोव्रतो न दध्यत्ति, न पयोत्ति दधिव्रतः। अगोरसवतो नोभे, तस्मात्तत्त्वं त्रयात्मकम् ।।' जिसके ऐसा व्रत हो कि मैं आज दूध ही लूँगा, वह दही नहीं खाता है; जिसके ऐसा व्रत हो कि मैं आज दही ही लूँगा, वह दूध नहीं लेता है। जिस पुरुष के गोरस न लेने का व्रत है, वह दोनों ही नहीं लेता है - इसप्रकार तत्त्व त्रयात्मक है। घड़ा नष्ट हुआ और कपाल पैदा हुआ तथा उन दोनों में मिट्टी कायम रही। इसीप्रकार सोने के बाजूबन्द हैं; उन्हें तोड़कर कुण्डल बनाएँ - इन दोनों स्थितियों में स्वर्ण कायम है। ऐसी स्थिति होने पर जिसे बाजूबन्द प्रिय था, उसे शोक होता है एवं जिसे कुण्डल प्रिय था, उसे हर्ष होता है तथा जिसे सोना प्रिय था, वह माध्यस्थभाव में रहता है। इसे आचार्य समन्तभद्र ने इसप्रकार स्पष्ट किया है - घट-मौलि-सुवर्णार्थी, नाशोत्पादस्थितिष्वयम् । शोक-प्रमोद-माध्यस्थ्य, जनो याति सहेतुकम् ।। घट, मुकुट और स्वर्ण चाहनेवालों को घट के नाश, मुकुट के उत्पाद और स्वर्ण के कायम रहने पर क्रमश: शोक, प्रमोद एवं माध्यस्थ भाव का अनुभव निष्कारण नहीं होता। ___ इसप्रकार तत्त्व त्रयात्मक है और जहाँ उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य - ये तीनों हैं, वहाँ सात भंग बनेंगे । हर्र, बहेरा और आँवला ये तीन चीजें हैं। इन तीन चीजों के अधिक से अधिक सात प्रकार के चूर्ण बन सकते हैं। तीन अंसयोगी, तीन द्विसंयोगी और एक त्रिसंयोगी। तीनों का अलगअलग चूर्ण बना सकते हैं - इसप्रकार तीन चूर्ण बनते हैं। अब द्विसंयोगी चूर्ण बनायेंगे तो भी तीन प्रकार के ही चूर्ण बनेंगे। तीनों में से किन्हीं दो मिलाकर बनाने पर तीन ही बनते हैं और त्रिसंयोगी भंग में तीनों ही मिलाने होंगे। इससे सात प्रकार के चूर्ण बन जाते हैं। १. आप्तमीमांसा, कारिका ६०, २. आप्तमीमांसा, कारिका ५९ तेरहवाँ प्रवचन हर, बहेरा और आँवला - इन तीन पदार्थों की यदि मात्रा अल्पअधिक कर दो तो अगणित चूर्ण बन सकते हैं; परंतु मात्रा बराबर रखो तो सात ही बनेंगे। यह तो आप जानते ही हैं कि जैनदर्शन में सप्तभंगी के साथ-साथ अनंतभंगी भी होती हैं। तात्पर्य यह है कि अनन्त सप्तभंगियाँ होती हैं। एक भाव-अभाव संबंधी सप्तभंगी, एक नित्य-अनित्य संबंधी सप्तभंगी आदि अनंत सप्तभंगियाँ होती हैं, हो सकती हैं; क्योंकि प्रत्येक वस्तु में अनंत धर्मयुगल हैं। इसी में एक वक्तव्य-अवक्तव्य संबंधी सप्तभंगी भी होती है। इसमें यह विचार अपेक्षित होता है कि वस्तुस्वरूप को हम बता सकते हैं या नहीं अर्थात वह वक्तव्य है या अवक्तव्य ? जिनवाणी इसमें कथंचित् वक्तव्य और कथंचित् अवक्तव्य - ऐसा कहकर स्याद्वाद् के भंग उपस्थित करती है। ____ हम किसी डॉक्टर के पास जाते हैं और उनसे कहते हैं कि डॉक्टर साहब! मेरे पेट में दर्द है। जब डॉक्टर पूछते हैं कि कैसा है ? कितना है? तो कहते हैं कि बहुत है; पर कह नहीं सकते हैं। अभी जो जैसा दर्द है, जितना दर्द है; वह मेरे कहने में नहीं आ रहा है; इसलिए ये कह रहा हूँ कि कह नहीं सकता, पर इतना तो यहाँ कहा ही जा रहा है कि - 'इतना दर्द है कि कह नहीं सकता हूँ।' डॉक्टर ने सुई उँगली में चुभाई और पूछा कि - 'कितना दर्द है ?' तब कहते हैं कि - ‘बहुत दर्द है।' फिर जोर से चुभाई और पूछा कि कितना दर्द है ? तब कहते हैं कि - बहुत दर्द है। उस सुई चुभाने से लेकर उँगलीकाट देने तक के दर्द की मात्रा में अंतर तो है; पर उस अंतर को बताया नहीं जा सकता है। इसलिए हम कहते हैं कि - 'इतना दर्द है कि कहा नहीं जा सकता है।' और 'दर्द है' 'बहुत दर्द है' यह कहा जा रहा है। यही कारण है कि वस्तु को कथंचित् वक्तव्य कहा जाता है एवं कथंचित् अवक्तव्य कहा जाता है। 101
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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