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प्रवचनसार का सार द्रव्यार्थिक चक्षु द्वारा देखा जाता है; तब नारकपना, तिर्यंचपना, मनुष्यपना, देवपना और सिद्धपना पर्यायस्वरूप विशेषों में रहनेवाले एक जीवसामान्य को देखनेवाले और विशेषों को न देखनेवाले जीवों को 'वह सब जीवद्रव्य है' - ऐसा भासित होता है।
और जब द्रव्यार्थिक चक्षु को सर्वथा बंद करके मात्र खुली हुई पर्यायार्थिक चक्षु के द्वारा देखा जाता है; तब जीवद्रव्य में रहनेवाले नारकपना, तिर्यंचपना, मनुष्यपना, देवपना और सिद्धपना-पर्यायस्वरूप अनेक विशेषों को देखनेवाले और सामान्य को न देखनेवाले जीवों को (वह जीवद्रव्य) अन्य-अन्य भासित होता है; क्योंकि द्रव्य उन-उन विशेषों के समय तन्मय होने से उन-उन विशेषों से अनन्य है - कण्डे, घास, पत्ते और काष्ठमय अग्नि की भाँति । (जैसे घास, लकड़ी इत्यादि की अग्नि उस-उस समय घासमय, लकड़ीमय इत्यादि होने से घास, लकड़ी इत्यादि से अनन्य है; उसीप्रकार द्रव्य उन-उन पर्यायरूप विशेषों के समय तन्मय होने से उनसे अनन्य है - पृथकू नहीं है।)
और जब उन द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दोनों आँखों को एक ही साथ खोलकर उनके द्वारा और इनके द्वारा (द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक चक्षुओं के) देखा जाता है तब नारकपना, तिर्यंचपना, मनुष्यपना, देवपना
और सिद्धपना पर्यायों में रहनेवाला जीवसामान्य तथा जीवसामान्य में रहनेवाले नारकपना, तिर्यंचपना, मनुष्यपना, देवपना और सिद्धत्वपर्यायस्वरूप विशेष तुल्य काल में ही (एक ही साथ) दिखाई देते हैं।" __ आचार्य यहाँ कह रहे हैं कि वस्तु का मूल स्वरूप सामान्यविशेषात्मक है। उसे स्पष्ट करने के लिए उन्होंने एक द्रव्यार्थिकनयरूप आँख एवं दूसरी पर्यायार्थिकनयरूप आँख का उदाहरण दिया है।
यहाँ मात्र द्रव्यार्थिक आँख को ही खुली रखना और पर्यायार्थिक आँख को बंद रखना - ऐसा नहीं कहा है। पर्यायार्थिक चक्षु को कभी खोलना ही नहीं, इसकी चर्चा आचार्यदेव ने की ही नहीं है।
बारहवाँ प्रवचन
अमृतचन्द्राचार्य ने कण्डे की अग्नि का उदाहरण देकर यह कहा है कि उसमें मात्र अग्नि को ही देखो, कण्डे को मत देखो। इसे ही द्रव्यदृष्टि कहा जाता है।
वह कण्डे की अग्नि कण्डे के आकाररूप हैं और उसका देखना इसलिए जरूरी है; क्योंकि घास की अग्नि तो दो मिनट में बुझेगी; लेकिन कण्डे की अग्नि को दबाने के बाद भी २४ घंटे विद्यमान रहती है। इसलिए अग्नि की सुरक्षा करना है अथवा अग्नि से सुरक्षा करना है तो यह देखना पड़ेगा कि वह कौनसी अग्नि है, वह कितने काल तक रहेगी और कितनी गर्मी देगी ?
इसे जानना कि नहीं जानना है; इसपर आचार्य कहते हैं कि अग्नि तो अग्नि होती है; वह जलाने का काम कभी बंद नहीं करेगी; इसलिए यहाँ ऐसा भेद न कीजिए कि यह अग्नि अच्छी है और वह अग्नि अच्छी नहीं है।
अग्नि तो अग्नि है और वह जलाने का कार्य करती है - बस इसका नाम द्रव्यदृष्टि है।
अंत में, आचार्य ने प्रमाणदृष्टि की भी चर्चा की है। जिसमें द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक - दोनों आँखों से एकसाथ देखते हैं; वह तीसरी प्रमाणदृष्टि है।
अब यहाँ प्रश्न है कि आत्मा का अनुभव प्रमाण है या नय? यह अनुभव प्रत्यक्ष है या परोक्ष है ? ।
इसके उत्तर में हम पूछते हैं कि प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाण के भेद हैं या नय के ? अनुभव प्रमाण हुआ और अनुभव प्राप्त करना है तो क्या वह अनुभवप्रमाण हेय है ? केवलज्ञान भी प्रमाण है तो क्या वह भी हेय है यदि हाँ तो उसे प्राप्त क्यों करना है ?