SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 82
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रवचनसार गाथा १२५ विगत गाथाओं में ज्ञानचेतना, कर्मचेतना और कर्मफलचेतना का स्वरूप स्पष्ट करने के बाद अब इस गाथा में यह बताते हैं कि ये तीनों चेतनायें प्रकारान्तर से एक आत्मा ही हैं; क्योंकि ये आत्मा की ही पर्यायें हैं। गाथा मूलत: इसप्रकार है - अप्पा परिणामप्पा परिणामोणाणकम्मफलभावी। तम्हा णाणं कम्मं फलं च आदा मुणेदव्वो ।।१२५।। (हरिगीत ) आत्मा परिणाममय परिणाम तीन प्रकार हैं। ज्ञान कर्मरु कर्मफल परिणाम ही हैं आत्मा ।।१२५।। आत्मा परिणामात्मक है। परिणाम ज्ञानरूप, कर्मरूप और कर्मफल रूप होता है; इसलिए ज्ञान, कर्म और कर्मफल आत्मा है - ऐसा समझना चाहिए। आचार्य अमृतचन्द्र इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “वस्तुतः आत्मा परिणामस्वरूप ही है; क्योंकि 'परिणाम स्वयं आत्मा है' - ऐसा ११२वीं गाथा में आचार्यदेव ने स्वयं ही कहा है। परिणाम चेतनास्वरूप होने से ज्ञान, कर्म और कर्मफलरूप होने के स्वभाववाला है; क्योंकि चेतना तन्मय अर्थात् ज्ञानमय, कर्ममय और कर्मफलमय होती है; इसलिए ज्ञान, कर्म और कर्मफल आत्मा ही हैं। इसप्रकार शुद्धद्रव्य के निरूपण में परद्रव्य का संपर्क असंभव होने से और पर्यायें द्रव्य के भीतर प्रलीन हो जाने से आत्मा शुद्धद्रव्य ही रहता है।" __ आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में इस गाथा का अर्थ करते हुए आचार्य अमृतचन्द्रकृत तत्त्वप्रदीपिका का पूर्णतः अनुकरण करते हैं। अन्त में निष्कर्ष के रूप में मात्र इतना जोड़ देते हैं कि परिणामी आत्मा गाथा-१२५ १५७ निश्चयरत्नत्रयस्वरूप शुद्धोपयोग से मोक्ष को और शुभ-अशुभ परिणामों से बंध को साधता है, प्राप्त करता है। वृन्दावनदासजी उक्त गाथा के भाव को इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं - (मनहरण कवित्त) परिनाम आतमीक आप यह आतमा है, सदा काल एकताईतासों तदाकार है। सोई परिनाम ज्ञान कर्म कर्मफल तीनों, चेतनता होन को समरथ उदार है।। याही एकताई तँ सुज्ञान कर्म कर्मफल, तीनोंरूप आतमा ही जानो निरधार है। अभेद विवच्छा तैं दरव ही के अंतर में, भेद सर्व लीन होत भाषी गनधार है।।११४।। आत्मा के परिणाम स्वयं आत्मा हैं और वे सदा उससे एकता रखते हैं, तदाकार हैं । वे परिणाम ज्ञानचेतना, कर्मचेतना और कर्मफलचेतनारूप हैं। इस एकता के परिणामस्वरूप ही उन तीनों को एक आत्मा ही जानो; क्योंकि अभेद अपेक्षा से सभी भेद द्रव्य के अन्दर ही लीन हो जाते हैं - ऐसा गणधरदेव कहते हैं। ___पण्डित देवीदासजी भी वृन्दावनदासजी के समान ही एक इकतीसा सवैया में उक्त तथ्य को भलीभांति समाहित कर लेते हैं। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “१. जब जीव ज्ञाता-दृष्टास्वभाव से परिणमित होता है, तब चेतना उसमय अर्थात् ज्ञानमय होती है, चेतना परिणाम से पृथक् नहीं होती। २. जब जीव विकारी अथवा अविकारी कार्यरूप परिणमित होता है, तब चेतना उसमय अर्थात् विकारी कर्ममय अथवा अविकारी कर्ममय होती है, चेतना उस परिणाम से पृथक् नहीं होती।
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy