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प्रवचनसार अनुशीलन दया-दान के विकारी भाव अथवा ज्ञान-दर्शन की शुद्धता के परिणाम आत्मा स्वयं ही करता है और उन विकारी अथवा अविकारी भावों को आत्मा स्वयं ही पहुँचता है; इसीलिए वे आत्मा के कर्म हैं।'
परिणामों द्वारा उत्पन्न किये जानेवाले सुख अथवा दुख कर्मफल हैं।
कर्मचेतना और कर्मफलचेतना में समयभेद नहीं है अर्थात् जिससमय कर्मचेतना विकाररूप है, उसीसमय कर्मफलचेतना आकुलता के फलरूप परिणमित होती है और जब कर्मचेतना अविकाररूप है, उसीसमय कर्मफल चेतना शांति के फलरूप परिणमित होती है।
ज्ञानचेतना और शुद्ध अविकारी भाव कर्मरूप कर्मचेतना दोनों में शुद्धता के परिणाम हैं। अभेद अपेक्षा से दोनों में अंतर नहीं; किन्तु ज्ञान गुण की मुख्यता से ज्ञान स्व-पर का विवेक करके आत्मा में अभेद होता है, इस ज्ञानपर्याय को ज्ञानचेतना कहते हैं और कर्ता गुण की मुख्यता से कहा जाता है कि आत्मा अपने निर्मल पर्यायरूप शुद्धता का कर्ता है, इस अपेक्षा से वह शुद्ध भावरूप कर्म अथवा अविकारी कर्मचेतना कहलाती है और कर्मफलचेतना अथवा जिसे स्वाभाविक सुख कहते हैं, वह शुद्धता के परिणाम का फल है और वह भोक्ता गुण की मुख्यता से कहने में आता है। ज्ञान करनेवाला, निर्मल पर्याय का (शुद्धता का) करनेवाला
और निराकुल सुख का भोगनेवाला अभेद अपेक्षा से आत्मा एक ही है; किन्तु गुणभेद की अपेक्षा से पृथक् भेद दर्शाया है।
इसप्रकार ज्ञानचेतना, कर्मचेतना और कर्मफल चेतना का स्वरूप
गाथा-१२३-२४
१५५ कर्मचेतना और कर्मफलचेतना के दो-दो भेद कर देते हैं। शुद्धभावरूप कर्मचेतना और अशुद्धभावरूप कर्मचेतना । इसीप्रकार अतीन्द्रिय सुखरूप कर्मफलचेतना और इन्द्रियसुखरूप कर्मफलचेतना ।
इसप्रकार इन गाथाओं में यही कहा गया है कि ज्ञानचेतना, कर्मचेतना और कर्मफलचेतना के भेद से चेतना तीनप्रकार की होती है। यह भगवान आत्मा चेतन है, चेतनारूप परिणमित होता है; इसलिए यह चेतना आत्मा का स्वरूप है। आत्मा का कोई परिणमन चेतना का उल्लंघन नहीं करता। तात्पर्य यह है कि आत्मा के प्रत्येक परिणमन में चेतना विद्यमान रहती है।
जिसमें स्व स्वरूप में और पर पररूप में भिन्नतापूर्वक एक ही साथ प्रतिभासित होते हैं, वह ज्ञान है । जीव के द्वारा किया जानेवाला भाव कर्म है। वह दो प्रकार का है - निरुपाधिक शुद्धभावरूप कर्म और औपाधिक शुभाशुभभावरूप कर्म। ___ इस कर्म (कार्य) के द्वारा उत्पन्न सुख-दुख कर्मफल है। शुद्धभावरूप कर्म का फल निराकुल सुख है और शुभाशुभभावरूप कर्म का फल आकुलतारूप दुख है।
इसप्रकार ज्ञानचेतना धर्मरूप है और कर्मचेतना व कर्मफलचेतना धर्मरूप भी है और अधर्मरूप भी है; क्योंकि ज्ञानचेतना तो ज्ञानी के ही होती है; पर कर्मचेतना और कर्मफलचेतना ज्ञानी-अज्ञानी - दोनों को होती है। ज्ञानी को शुद्धोपयोगरूप कर्मचेतना और अतीन्द्रियसुखरूप कर्मफलचेतना होती है और कदाचित् शुभाशुभभावरूप कर्म-चेतना
और इन्द्रियसुख-दुखरूप कर्मफल चेतना भी होती है; पर अज्ञानी को सदा शुभाशुभभावरूप कर्मचेतना और इन्द्रियसुख-दुखरूप कर्मफलचेतना ही होती है।
यदि हम ज्ञानी-अज्ञानी का भेद नहीं करें तो सामान्यरूप से कहा जा सकता है कि चेतना जीव का लक्षण है और वह लक्षण किसी न किसी रूप में प्रत्येक जीव में पाया ही जाता है।
कहा है।"
यहाँ एक बात विशेष ध्यान देने योग्य है कि कविवर वृन्दावनदासजी तो कहते हैं कि जीव के विभाव को आरंभ कर्मचेतना है अर्थात् कर्मचेतना विभावरूप है। आरंभ में स्वामीजी भी इस बात का समर्थन करते दिखाई देते हैं; किन्तु बाद में तत्त्वप्रदीपिका और तात्पर्यवृत्ति टीका के आधार पर १. दिव्यध्वनिसार भाग-३, पृष्ठ-३९९-४०० २. वही, पृष्ठ-४००
३. वही, पृष्ठ-४०१-४०२