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________________ गाथा-१११ १०४ प्रवचनसार अनुशीलन जिसप्रकार सोने की उत्पादक अन्वयशक्तियाँ क्रमप्रवृत्ति प्राप्त करके उस-उस व्यतिरेक-व्यक्तित्व को प्राप्त होती हुई, सोने को बाजूबंद पर्यायरूप करती हैं; उसीप्रकार द्रव्य के सन्दर्भ में भी समझना चाहिए। इसलिए द्रव्यार्थिकनय के कथन से सत्-उत्पाद है और पर्यायार्थिकनय के कथन से असत्-उत्पाद है - यह बात निर्दोष है।" आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में इस गाथा के भाव को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि जिससमय द्रव्यार्थिकनय से देखते हैं तो यह स्पष्ट ही है कि कड़े में जो सोना है, कंकण में भी वही सोना है; इसकारण सत्उत्पाद कहा जाता है और जब पर्यायार्थिकनय से देखते हैं तो कंकण पर्याय जो अभी उत्पन्न हुई है, वह पहले नहीं थी; अत: यह असत्उत्पाद है। इसी बात को स्पष्ट करने के लिए वे गृहत्याग और मुनिदीक्षा का भी उदाहरण देते हैं। सत्-उत्पाद और असत्-उत्पाद के स्वरूप को कविवर वृन्दावनजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं (दोहा) दो प्रकार उतपादजुत दरव रहत सब काल । सत उतपाद प्रथम कह्योदुतिय असत की चाल ।। दरव अनादि अनंत जो निज परजै के मांहि । उपजत है सो दरवट्टग सद उतपाद कहाहिं।। जो पूरव ही थो नहीं ताको जो उतपाद। सो परजय-नयद्वार तें असदभाव निरवाद ।। द्रव्य सदा ही दो प्रकार के उत्पाद से सहित होता है। उनमें पहला सत्-उत्पाद है और दूसरा असत्-उत्पाद है। अनादि-अनंत जो द्रव्य है, वह अपनी पर्यायों में पैदा होता है; वह द्रव्यदृष्टि से सत्-उत्पाद कहा जाता है। जो पहले नहीं था और अब जिसका उत्पाद हुआ है; पर्यायार्थिकनय से वह असत्-उत्पाद है। यह बात निर्विवाद सिद्ध है। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “उत्पाद तो एक ही है, कथन शैली दो प्रकार की है। दोनों में उत्पाद का सम्बन्ध तो द्रव्य के साथ है। मूल गाथा में है कि द्रव्य स्वयं ही सदभावसम्बद्ध और असदभावसम्बद्ध उत्पाद को सदा प्राप्त होता है।' जिसका पहले अस्तित्व हो, उसकी ही उत्पत्ति को सत् उत्पाद कहते हैं और जिसका पहले अस्तित्व न हो, उसकी उत्पत्ति को असत् उत्पाद कहा गया है। जब अवस्था को गौण करके द्रव्य का मुख्यरूप से कथन किया जाता है अर्थात् मतिज्ञान, श्रुतज्ञानादि अवस्था को गौण करके आत्मद्रव्य का कथन किया जावे तो जो अस्तित्व है. वही उत्पन्न होता है अर्थात् ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि शक्तियाँ ही उत्पन्न होती हैं। एक ही उत्पाद को दो संबंध लागू पड़ते हैं। द्रव्य के साथ संबंध कहना हो, तब सत्-उत्पाद और पर्याय के साथ संबंध कहना हो, तब द्रव्य को असत्-उत्पाद हुआ कहा गया है।" उक्त गाथा में यह स्पष्ट किया गया है कि जब कोई कार्य होता है तो वह पहले से था या एकदम नया उत्पन्न होता है ? ____ उक्त सन्दर्भ में जैनदर्शन का कहना है कि जिससे वस्तु बनती है, वह मूल सामग्री तो पहले भी थी और अभी भी है, उसमें तो कोई परिवर्तन हुआ नहीं। सोना तब भी था, जब वह कड़े के रूप में था और अब भी है, जब कंगन बन गया है; अत: सोने का ही पूर्वपर्यायरूप से नाश हुआ है और सोने का ही उत्तरपर्यायरूप से उत्पाद हुआ है; अत: सत् का ही उत्पाद हुआ है। पर जिसकी दृष्टि कड़े पर है, उसका तो सब कुछ नष्ट ही हो गया है और जिसकी दृष्टि कंगन पर है, उसे सब कुछ मिल गया। इसप्रकार यह स्पष्ट हुआ कि पर्यायदृष्टि से देखने पर असत् का उत्पाद हुआ है और द्रव्यदृष्टि से देखने पर सत् का उत्पाद हुआ है। . १. दिव्यध्वनिसार भाग-३, पृष्ठ-२९४ २. वही, पृष्ठ-३०४-३०५ ३. वही, पृष्ठ-३०५
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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