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________________ प्रवचनसार गाथा १११ विगत गाथा में गुण-गुणी में अनेकत्व का निषेध कर एकता स्थापित की थी और अब इस गाथा में यह बताते हैं कि द्रव्य के सत्-उत्पाद और असत्-उत्पाद में कोई विरोध नहीं है। गाथा मूलत: इसप्रकार है - एवंविहं सहावे दव्वं दव्वत्थपज्जयत्थेहिं । सदसब्भावणिबद्धं पादुब्भावं सदा लभदि ।।१११।। (हरिगीत) पूर्वोक्त द्रव्यस्वभाव में उत्पाद सत् नयद्रव्य से। पर्यायनय से असत् का उत्पाद होता है सदा ।।१११।। ऐसा द्रव्य द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयों के द्वारा स्वभाव में सद्भावसंबद्ध और असद्भावसंबद्ध उत्पाद को सदा प्राप्त करता है। सत् अर्थात् जो वस्तु पहले से ही विद्यमान हो, उसके उत्पाद को सत्-उत्पाद कहते हैं और जो वस्तु पहले से विद्यमान न हो, उसके उत्पाद को असत्-उत्पाद कहते हैं। द्रव्यार्थिकनय से प्रत्येक वस्तु का सत् उत्पाद होता है और पर्यायार्थिकनय से प्रत्येक वस्तु का असत् उत्पाद होता है। कार्य तो एक ही हुआ है; उसे ही द्रव्यार्थिकनय से सत्-उत्पाद और पर्यायार्थिक-नय से असत्-उत्पाद कहते हैं। इस गाथा के भाव को आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं “निर्दोष लक्षणवाला, अनादिनिधन, पूर्वकथित यह द्रव्य अपने सत्स्वभाव में उत्पन्न होता है। द्रव्य का यह उत्पाद द्रव्यार्थिकनय से कथन करते समय सद्भावसंबंद्ध ही है और पर्यायार्थिकनय से कथन करते समय असद्भावसंबंद्ध ही है। अब इसी बात को विशेष समझाते हैं - जब द्रव्य की चर्चा होती है, पर्यायों की नहीं; तब उत्पत्ति-विनाश गाथा-१११ १०३ रहित, युगपत् प्रवर्तमान, द्रव्य को उत्पन्न करनेवाली अन्वय शक्तियों के द्वारा; उत्पत्ति-विनाशलक्षणवाली, क्रमशः प्रवर्त्तमान, पर्यायों की उत्पादक उन-उन व्यतिरेक व्यक्तियों को प्राप्त होनेवाले द्रव्य को सोने की भाँति सद्भावसंबंद्ध ही उत्पाद है। वह इसप्रकार है कि जब सोने की चर्चा होती है; बाजूबंद आदि पर्यायों की नहीं; तब सोने के समान जीवित, युगपद् प्रवर्तमान, सोने की उत्पादक अन्वय-शक्तियों द्वारा, बाजूबंद आदि पर्यायों के समान जीवित, क्रमश: प्रवर्त्तमान, बाजूबंद आदि पर्यायों की उत्पादक उन-उन व्यतिरेक व्यक्तियों को प्राप्त होनेवाले सोने का सद्भावसंबंद्ध ही उत्पाद होता है। जब पर्यायें ही कही जाती हैं, द्रव्य नहीं; तब उत्पत्ति-विनाशलक्षण, क्रमश: प्रवर्त्तमान, पर्यायों को उत्पन्न करनेवाली उन-उन व्यतिरेक पर्यायों के द्वारा; उत्पत्ति-विनाश रहित, युगपत् प्रवर्तमान, द्रव्य की उत्पादक अन्वयशक्तियों को प्राप्त होनेवाले द्रव्य को सोने की भाँति असद्भावसंबंद्ध ही उत्पाद होता है। वह इसप्रकार है कि जब बाजूबंद आदि पर्यायें कही जाती हैं; सोना नहीं; तब बाजूबंद आदि पर्यायों के समान जीवित, क्रमशः प्रवर्त्तमान, बाजूबंद आदि पर्यायों की उत्पादक उन-उन व्यतिरेक व्यक्तियों के द्वारा; सोने के समान जीवित युगपद् प्रवर्त्तमान सोने की उत्पादक अन्वय शक्तियों को प्राप्त सोने के असद्भावयुक्त ही उत्पाद है। अब पर्यायों की चर्चा के समय भी असत्-उत्पाद में पर्यायों को उत्पन्न करनेवाली वे-वे व्यतिरेक व्यक्तियाँ युगपत् प्रवृत्ति प्राप्त करके अन्वयशक्तिपने को प्राप्त होती हुई पर्यायों को द्रव्य करता है। जिसप्रकार बाजूबंद आदि पर्यायों को उत्पन्न करनेवाली वे-वे व्यतिरेक व्यक्तियाँ युगपद् प्रवृत्ति प्राप्त करके अन्वयशक्तिपने प्राप्त करती हुई बाजूबंद आदि पर्यायों को सोना करता है; उसीप्रकार द्रव्य की चर्चा के समय भी सत्-उत्पाद में द्रव्य की उत्पादक अन्वयशक्तियाँ क्रमप्रवृत्ति को प्राप्त करके उस-उस व्यतिरेकव्यक्तित्व को प्राप्त होती हुईं, द्रव्य को पर्यायें (पर्यायरूप) करती हैं।
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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