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________________ प्रवचनसार अनुशीलन इसलिए सम्यक्चारित्र युक्त उन मुनिराजों को नमस्कार करके उनमें ही तन्मय होकर संक्षेप में परमार्थ का निश्चय करानेवाले इस सम्यक्त्व अधिकार को कहूँगा । ध्यान रहे, इस गाथा में न केवल मंगलाचरण किया गया है, अपितु सम्यक्त्व अधिकार कहने की प्रतिज्ञा भी की गई है। २ एक बात विशेष ध्यान देने योग्य यह भी है कि इसमें अरहंत और सिद्धों को नमस्कार न करके; उन्हीं मुनिराजों को नमस्कार किया गया है, जिनको प्रथम महाधिकार की अन्तिम दो गाथाओं में किया गया है। इस गाथा की संगति उन गाथाओं से ही बैठती है। तम्हा तस्स माई - इसलिए उनको नमस्कार करके - इस कथन में पूर्वापर संबंध स्पष्ट हो ही जाता है। यद्यपि इस गाथा में ऐसा कोई शब्द नहीं मिलता; जिससे यह अनुभव किया जा सके कि आचार्य कुन्दकुन्द को इस अधिकार का नाम सम्यग्दर्शनाधिकार इष्ट था; तथापि आचार्य जयसेन ने तात्पर्यवृत्ति में परमार्थ का निश्चय करानेवाला अधिगम का अर्थ सम्यक्त्व किया है। लगता है इसी आधार पर उन्होंने इस महाधिकार का नाम सम्यग्दर्शन अधिकार रखा है। उन्हें स्वयं आशंका थी कि उक्त शब्दों का अर्थ सम्यग्दर्शन करने में कुछ लोगों को विकल्प हो सकता है; अतः उन्होंने टीका में स्वयं प्रश्न उठाकर उसका उत्तर दिया है। उसमें यह भी लिखा है कि इसका अर्थ सम्यग्दर्शन नहीं करना हो तो सम्यग्ज्ञान भी कर सकते हैं। उक्त सम्पूर्ण प्रकरण मूलत: पठनीय हैं। आत्मा के कल्याण के लिए जगत में जो भी जानने योग्य पदार्थ हैं; उन सभी पदार्थों का वर्णन इस ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार में होगा । पहले सभी द्रव्यों की सामान्य चर्चा करेंगे; उसके बाद षट्द्रव्यों को अनेक युगलों में विभक्त कर प्रस्तुत करेंगे तथा प्रत्येक द्रव्य की अलगअलग विशेष चर्चा करेंगे। तत्पश्चात् ज्ञान और ज्ञेयों की भिन्नता का स्वरूप स्पष्ट करेंगे। गाथा - ९३ ३ इसप्रकार यह ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार तीन अधिकारों में विभक्त है; जो इसप्रकार हैं - १. द्रव्यसामान्यप्रज्ञापन अधिकार, २ . द्रव्यविशेषप्रज्ञापन अधिकार और ३. ज्ञानज्ञेयविभागाधिकार । द्रव्यसामान्यप्रज्ञापन अधिकार प्रवचनसार का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अंश है; क्योंकि इसमें प्रतिपादित वस्तुस्वरूप जबतक हमारे ख्याल में नहीं आएगा, तबतक सम्यग्दर्शन की प्राप्ति नहीं हो सकती। सम्यग्दर्शन का विषयभूत जो भगवान आत्मा है और जिसकी चर्चा समयसार में की जाती है; वह भगवान आत्मा इस प्रवचनसार के द्रव्यसामान्यप्रज्ञापन की पृष्ठभूमि पर ही समझा जा सकता है। इसीप्रकार द्रव्यविशेषाधिकार में प्रत्येक द्रव्य का स्वरूप स्पष्ट करने के साथ-साथ छह द्रव्यों को अनेक युगलों में विभक्त कर भेदविज्ञान की पृष्ठभूमि तैयार की जावेगी । ज्ञानज्ञेय विभागाधिकार एक प्रकार से ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार और ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार - दोनों को अपने में समेटे है, दोनों का उपसंहार है, निष्कर्ष है। उसमें यह स्पष्ट किया जायेगा कि ज्ञानतत्त्व जुदा है और ज्ञेयतत्त्व जुदा है । यद्यपि अपना आत्मा ज्ञान भी है और ज्ञेय भी है; तथापि अपने लिए ज्ञानतत्त्व मात्र अपना आत्मा ही है, शेष सारा जगत, जिसमें अन्य सभी आत्मा भी शामिल हैं, ज्ञेयतत्त्व ही है, मात्र ज्ञेयतत्त्व ही है । इस दृष्टि से विचार करें तो यह ज्ञान - ज्ञेय विभागाधिकार एक स्वतंत्र महाधिकार होना चाहिए; तथापि यहाँ इसे ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार के अन्तर्गत एक अधिकार के रूप में ही प्रस्तुत किया गया है। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति के लिए ज्ञानतत्त्व और ज्ञेयतत्त्व जानने के साथ-साथ ज्ञानतत्त्व और ज्ञेयतत्त्व में भेद जानना भी अनिवार्य है; इसलिए ज्ञान - ज्ञेयविभागाधिकार भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण अधिकार है। इसप्रकार ये तीनों अधिकार ही महत्त्वपूर्ण अधिकार हैं और अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विषयवस्तु को प्रस्तुत करते हैं।
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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