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________________ ४७२ गाथा पद्यानुवाद ४७३ प्रवचनसार अनुशीलन आतमा ज्ञानात्मक अनद्रव्य में मध्यस्थ हो। ध्यावे सदा ना रहे वह नित शुभ-अशुभ उपयोग में ।।१५९।। देह मन वाणी न उनका करण या कर्ता नहीं। ना कराऊँ मैं कभी भी अनुमोदना भी ना करूँ ।।१६०।। देह मन वच सभी पुद्गल द्रव्यमय जिनवर कहे। ये सभी जड़ स्कन्ध तो परमाणुओं के पिण्ड हैं ।।१६१।। मैं नहीं पुद्गलमयी मैंने ना बनाया हैं इन्हें। मैं तन नहीं हूँ इसलिए ही देह का कर्ता नहीं ।।१६२।। अप्रदेशी अणु एक प्रदेशमय अर अशब्द हैं। अर रूक्षता-स्निग्धता से बहुप्रदेशीरूप हैं।।१६३।। परमाणु के परिणमन से इक-एक कर बढ़ते हुए। अनंत अविभागी न हो स्निग्ध अर रूक्षत्व से ।।१६४।। परमाणुओं का परिणमन सम-विषम अर स्निग्ध हो। अर रूक्ष हो तो बंध हो दो अधिक पर न जघन्य हो ।।१६५।। दो अंश चिकने अणु चिकने-रूक्ष हो यदि चार तो। हो बंध अथवा तीन एवं पाँच में भी बंध हो ।।१६६।। यदि बहुप्रदेशी कंध सूक्षम-थूल हों संस्थान में । तो भूजलादि रूप हों वे स्वयं के परिणमन से ।।१६७।। भरा है यह लोक सूक्षम-थूल योग्य-अयोग्य जो। कर्मत्व के वे पौद्गलिक उन खध के संयोग से ।।१६८।। स्कन्ध जो कर्मत्व के हों योग्य वे जिय परिणति । पाकर करम में परिणमें न परिणमावे जिय उन्हें ।।१६९।। कर्मत्वगत जड़पिण्ड पुद्गल देह से देहान्तर । को प्राप्त करके देह बनते पुन-पुनः वे जीव की।।१७०।। यह देह औदारिक तथा हो वैक्रियक या कार्मण । तेजस अहारक पाँच जो वे सभी पुद्गलद्रव्यमय ।।१७१।। चैतन्य गुणमय आतमा अव्यक्त अरस अरूप है। जानो अलिंगग्रहण इसे यह अनिर्दिष्ट अशब्द है ।।१७२।। मूर्त पुद्गल बंधे नित स्पर्श गुण के योग से । अमूर्त आतम मूर्त पुद्गल कर्म बाँधे किसतरह ।।१७३।। जिसतरह रूपादि विरहित जीव जाने मूर्त को। बस उसतरह ही जीव बाँधे मूर्त पुद्गलकर्म को ।।१७४।। प्राप्त कर उपयोगमय जिय विषय विविध प्रकार के।। रुष-तुष्ट होकर मुग्ध होकर विविधविध बंधन करे ।।१७५।। जिस भाव से आगत विषय को देखे-जाने जीव यह । उसी से अनुरक्त हो जिय विविधविध बंधन करे ।।१७६।। स्पर्श से पुद्गल बंधे अर जिय बंधे रागादि से। जीव-पुद्गल बंधे नित ही परस्पर अवगाह से ।।१७७।। आतमा सप्रदेश है उन प्रदेशों में पद्गला। परविष्ट हों अर बंधे अर वे यथायोग्य रहा करें ।।१७८।। रागी बाँधे कर्म छूटे राग से जो रहित है। यह बंध का संक्षेप है बस नियतनय का कथन यह ।।१७९।। राग-रुष अर मोह ये परिणाम इनसे बंध हो । राग है शुभ-अशुभ किन्तु मोह-रुष तो अशुभ ही ।।१८०।। पर के प्रति शुभभाव पुण पर अशुभ तो बस पाप है। पर दुःखक्षय का हेतु तो बस अनन्यगत परिणाम है।।१८१।। पृथ्वी आदि थावरा त्रस कहे जीव निकाय हैं। वे जीव से हैं अन्य एवं जीव उनसे अन्य है ।।१८२।। जो न जाने इसतरह स्व और पर को स्वभाव से । वे मोह से मोहित रहे 'ये मैं हूँ' अथवा 'मेरा यह' ।।१८३।। निज भाव को करता हुआ निजभाव का कर्ता कहा। और पुद्गल द्रव्यमय सब भाव का कर्ता नहीं ।।१८४।। जीव पुद्गल मध्य रहते हुए पुद्गलकर्म को। जिनवर कहें सब काल में ना ग्रहे-छोड़े-परिणमे ।।१८५।। भवदशा में रागादि को करता हुआ यह आतमा। रे कर्मरज से कदाचित् यह ग्रहण होता छूटता ।।१८६।। रागादियुत जब आतमा परिणमे अशुभ-शुभ भाव में। तब कर्मरज से आवरित हो विविध बंधन में पड़े ।।१८७।। विशुद्धतम परिणाम से शुभतम करम का बंध हो। संक्लेशतम से अशुभतम अर जघन हो विपरीत से ।।१३।। •आचार्य जयसेन की टीका में प्राप्त गाथा १३
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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