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________________ गाथा पद्यानुवाद ४७१ प्रवचनसार अनुशीलन आकाश का अवगाह धर्माधर्म के गमनागमन । स्थानकारणता कहे ये सभी जिनवरदेव ने ।।१३३।। उपयोग आतमराम का अर वर्तना गुण काल का।। है अमूर्त द्रव्यों के गुणों का कथन यह संक्षेप में ।।१३४।। युगलम् ।। हैं बहप्रदेशी जीव पुद्गल गगन धर्माधर्म सब। है अप्रदेशी काल जिनवरदेव के हैं ये वचन ।।१३५।। कालद्रव को छोड़कर अवशेष अस्तिकाय हैं। बहुप्रदेशीपना ही है काय जिनवर ने कहा ।।११।। गगन लोकालोक में अर लोक धर्माधर्म से। है व्याप्त अर अवशेष दो से काल पुद्गलजीव हैं।।१३६।। जिसतरह परमाणु से है नाप गगन प्रदेश का। बस उसतरह ही शेष का परमाणु रहित प्रदेश से ।।१३७।। पुद्गलाणु मंदगति से चले जितने काल में। रे एक गगनप्रदेश पर परदेश विरहित काल वह ।।१३८।। परमाणु गगनप्रदेश लंघन करे जितने काल में। उत्पन्नध्वंसी समय परापर रहे वह ही काल है ।।१३९।। अणु रहे जितने गगन में वह गगन ही परदेश है। अरे उस परदेश में ही रह सकें परमाणु सब ।।१४०।। एक दो या बहुत से परदेश असंख्य अनंत हैं। काल के हैं समय अर अवशेष के परदेश हैं ।।१४१।। इक समय में उत्पाद-व्यय यदि काल द्रव में प्राप्त हैं। तो काल द्रव्यस्वभावथित ध्रुवभावमय ही क्यों न हो।।१४२।। इक समय में उत्पाद-व्यय-ध्रुव नाम के जो अर्थ हैं। वे सदा हैं बस इसलिए कालाणु का सद्भाव है ।।१४३।। जिस अर्थ का इस लोक में ना एक ही परदेश हो। वह शून्य ही है जगत में परदेश बिन न अर्थ हो ।।१४४।। ज्ञान-ज्ञेयविभागाधिकार सप्रदेशपदार्थनिष्ठित लोक शाश्वत जानिये। जो उसे जाने जीव वह चतुप्राण से संयुक्त है ।।१४५।। • आचार्य जयसेन की टीका में प्राप्त गाथा ११ इन्द्रिय बल अर आयु श्वासोच्छवास ये ही जीव के। हैं प्राण इनसे लोक में सब जीव जीवे भव भ्रमे ।।१४६।। पाँच इन्द्रिय प्राण मन-वच-काय त्रय बल प्राण हैं। आयु श्वासोच्छवास जिनवर कहे ये दश प्राण हैं ।।१२।। जीव जीवे जियेगा एवं अभीतक जिया है। इन चार प्राणों से परन्तु प्राण ये पुद्गलमयी ।।१४७।। मोहादि कर्मों से बंधा यह जीव प्राणों को धरे । अर कर्मफल को भोगता अर कर्म का बंधन करे ।।१४८।। मोह एवं द्वेष से जो स्व-पर को बाधा करे। पूर्वोक्त ज्ञानावरण आदि कर्म वह बंधन करे ।।१४९।। ममता न छोड़े देह विषयक जबतलक यह आतमा । कर्ममल से मलिन हो पुन-पुन: प्राणों को धरे ।।१५०।। उपयोगमय निज आतमा का ध्यान जो धारण करे। इन्द्रियजयी वह विरतकर्मा प्राण क्यों धारण करें ।।१५१।। अस्तित्व निश्चित अर्थ की अन्य अर्थ के संयोग से। जो अर्थ वह पर्याय जो संस्थान आदिक भेदमय ।।१५२।। तिर्यंच मानव देव नारक नाम नामक कर्म के। उदय से पर्याय होवें अन्य-अन्य प्रकार कीं।।१५३।। त्रिधा निज अस्तित्व को जाने जो द्रव्यस्वभाव से। वह हो न मोहित जान लो अन-अन्य द्रव्यों में कभी ।।१५४।। आतमा उपयोगमय उपयोग दर्शन-ज्ञान हैं। अर शुभ-अशुभ के भेद भी तो कहे हैं उपयोग के ।।१५५।। उपयोग हो शुभ पुण्यसंचय अशुभ हो तो पाप का। शुभ-अशुभ दोनों ही न हो तो कर्म का बंधन न हो ।।१५६।। श्रद्धान सिध-अणगार का अर जानना जिनदेव को। जीवकरुणा पालना बस यही है उपयोग शुभ ।।१५७।। अशुभ है उपयोग वह जो रहे नित उन्मार्ग में । श्रवण-चिंतन-संगति विपरीत विषय-कषाय में ।।१५८।। • आचार्य जयसेन की टीका में प्राप्त गाथा १२
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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