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________________ ४३२ प्रवचनसार अनुशीलन "उपर्युक्त विधि के अनुसार जो परज्ञेय से खिसककर स्वज्ञेय ध्रुव की ओर बढ़ता है; उसकी शुद्धात्मा में ही प्रवृत्ति होती है। निमित्त तो आदि-अंतवाले और परतःसिद्ध हैं और आत्मा अनादि-अनंत स्वतःसिद्ध है - ऐसा जानकर निज ज्ञाता-दृष्टा स्वभाव में एकाकार होने पर शुद्धात्मा की प्राप्ति होती है; किन्तु व्यवहार प्रवृत्ति द्वारा तथा परपदार्थ की प्रवृत्ति द्वारा शुद्धात्मा की प्राप्ति नहीं होती। परपदार्थ असत् हैं, शरणभूत नहीं; किन्तु निज आत्मा ही एक शरणभूत है, वही ध्यान करने योग्य है। साकार उपयोग :- यह शरीर है, यह जीव है, यह मनुष्य है - ऐसा भेद करके जाननेवाला चेतन का उपयोग ही साकार उपयोग है। अनाकार उपयोग :- यह जीव है, यह अजीव है - ऐसा भेद किये बिना सत्ता मात्र के प्रतिभास को अनाकार उपयोग कहते हैं।२ । साकार तथा अनाकार दोनों उपयोगवाले को एक विषय का अनुभव होता है। ध्यान लक्ष्य है तथा एकाग्र संचेतन उसका लक्षण है। आत्मा ज्ञाता-दृष्टा शुद्धस्वरूपी ही है। वह पर का कर्ता नहीं, राग-द्वेष उसके स्वरूप नहीं - ऐसा जानकर जो एकमात्र ध्रुव आत्मा को ही अग्र करके ध्याता है - अनुभवता है, उसे धर्म की प्राप्ति होती है तथा उसकी अनादिकाल की बंधी मोह की ग्रंथी छिद जाती है। स्वभाव में एकाग्र होने पर मोह उत्पन्न ही नहीं होता, तब मोह का नाश किया - ऐसा कहा जाता है। ___परपदार्थ से लाभ-नुकसान होता है, पुण्य से धर्म होता है - ऐसी मान्यता ही मोह की गाँठ है। ऐसे मोह का नाश होने पर राग-द्वेष का नाश हो जाता है; क्योंकि राग-द्वेष का मूल मिथ्यात्व है। उस मोह के नष्ट हुये बिना राग-द्वेष का नाश नहीं होता। जब इस जीव का पर से लाभ-नुकसान की मान्यतारूपी मोह मूल १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-४२४-४२५ २. वही, पृष्ठ-४२५ ३. वही, पृष्ठ-४२५ ४. वही, पृष्ठ-४२९ गाथा-१९४-१९५ ४३३ से नष्ट हो जाये तो संसार परिभ्रमण का अंत आ जाता है। इसलिये जिसे राग-द्वेष का नाश करना हो, उसे सर्वप्रथम दर्शनमोह का नाश करना चाहिए? क्योंकि मिथ्यात्व टले बिना राग-द्वेष नहीं टलते और राग-द्वेष टले बिना चारित्र प्रगट नहीं होता तथा चारित्र बिना मुक्ति नहीं होती। स्वज्ञेय पर से जुदा है; इसलिए एक है, एक होने से शुद्ध है, शुद्ध होने से ध्रुव है और वही अनुभव करने योग्य है, उससे मोह का नाश होता है। इसप्रकार जो जीव स्वज्ञेय का आश्रय करके सम्यग्दर्शन प्रगट करता है, उसे स्थिरता होने पर चारित्रदशा प्रगट होती है। इसी रीति से मुनिराज राग-द्वेष का क्षपण करते हैं। वे मुनि परम मध्यस्थता धारण करते हैं। श्रामण्य अर्थात् मुनिपने का लक्षण परम मध्यस्थता है। इसप्रकार मुनि मुनिपने में विशेष स्थिरता करके अक्षय अविनाशी सुख को प्राप्त करते हैं। उस सुख का लक्षण अनाकुलता है। अज्ञानी जीव पैसा, पुत्र-पत्नी, जंगल में आनंद माने बैठा है; पर वह तो दुःखरूप आकुलता है। इसप्रकार स्वभाव की लीनता से शांतसमभाव के कारण मुनि आनंद और मुक्ति को प्राप्त करते हैं। ____ इसप्रकार परज्ञेय का लक्ष्य छोड़कर स्वज्ञेय की श्रद्धा और ज्ञान करना ही सम्यग्दर्शन-ज्ञान है, और उसमें लीनता से चारित्र प्रगट होता है और चारित्ररूपी मध्यस्थता से अक्षय सुख की प्राप्ति होती है। इससे मोहरूपी ग्रंथि के भेद से अर्थात् मिथ्यात्व के नाश से अविनाशी सुख की प्राप्ति होती है।" इन गाथाओं में साररूप से यह बताया गया है कि विगत गाथाओं में कहे गये आत्मा का स्वरूप जानकर जो आत्मा आत्मा का अनुभव १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-४३० २. वही, पृष्ठ-४३० ३. वही, पृष्ठ-४३० ४. वही, पृष्ठ-४३१
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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