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प्रवचनसार अनुशीलन इसप्रकार इस गाथा में आचार्य भगवान का कहने का आशय यह है कि जो जीव अशुद्धनय का कथन नहीं समझता और संयोग से लाभहानि मानता है, उसे अशुद्ध आत्मा की प्राप्ति होती है। इसलिए हे जीव! तू ऐसा खोटा ज्ञान न करके पर द्रव्य के ग्रहण-त्याग रहित अपने आत्मा की श्रद्धा ज्ञान कर तो तुझे धर्मदशा प्रगट होगी।
शुद्ध द्रव्य का निरूपण करनेवाला निश्चयनय बताता है कि जीव में उत्पन्न हुए विकारी परिणाम जीव के हैं। वे परिणाम किसी कर्म अथवा परद्रव्य ने नहीं कराये। 'शुद्ध द्रव्य' का अर्थ यहाँ 'पर से भिन्न ' ऐसा लेना चाहिए।
स्वभाव को अग्र करके ध्यान करना ही शुद्धात्मा की प्राप्ति का कारण है । यहाँ धर्मी जीव का भाव कैसा होता है, ध्यान कैसा होता है ? उसकी बात करते हैं। प्रथम तो वह परपदार्थ की रुचि छोड़ता है । परपदार्थ, निमित्त, कर्म तथा विकार के साथ स्वस्वामी संबंध नहीं मानता। पुण्य-पाप रहित आत्मा आत्मपने ग्रहण करता है। परद्रव्य की ओर लक्ष्य नहीं देता ।
परपदार्थ, विकार इत्यादि को गौण करके, एक आत्मा को अग्र करके उसमें विचार को रोककर आत्मा में लीन होना ध्यान है। परपदार्थ, क्षेत्र, संहनन, देव-गुरु-शास्त्र आत्मा को लाभ-हानि के कारण नहीं हैं, पाँच महाव्रतादि के परिणाम विकार हैं, उनकी दृष्टि छोड़कर स्व में लीन होना ही शुद्धात्मा है । पर सन्मुख दृष्टिवाले को शुद्धात्मा नहीं कहा। इसलिए शुद्धनय से ही शुद्धात्मा की प्राप्ति होती है अर्थात् धर्म होता है। ३"
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उक्त सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि जो व्यक्ति रुपया-पैसा, धनधान्य, मकान, देश, नगर, गाँव आदि में एकत्वबुद्धि, ममत्वबुद्धि,
१. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-३८९ २. वही, पृष्ठ-३९२
३. वही, पृष्ठ-३९६
गाथा - १९०-१९९
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कर्तृत्वबुद्धि और भोक्तृत्वबुद्धि नहीं छोड़ता है; वह श्रामण्य (मुनिपना) को छोड़कर उन्मार्ग का आश्रय लेता हुआ उन्मार्गी हो जाता है और जो व्यक्ति स्त्री-पुत्रादि, धन-धान्य, रुपया-पैसा आदि परपदार्थों में ये मेरे नहीं हैं और मैं इनका नहीं हूँ; ये मेरे स्वामी नहीं हैं और मैं इनका स्वामी नहीं हूँ, मैं इनका कर्ता-भोक्ता नहीं हूँ और ये मेरे कर्ता-भोक्ता नहीं हैं - इसप्रकार पर में एकत्व - ममत्व और कर्तृत्व-भोक्तृत्वबुद्धि छोड़कर “मैं तो एक शुद्धज्ञानमय ही हूँ' - इसप्रकार अपने में अपनापन स्थापित करते हैं; वे उपयोग को पर में से हटाकर अपने में जोड़ते हैं और सन्मार्गी हो जाते हैं, शुद्धात्मा हो जाते हैं।
विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि यहाँ भी विगत गाथा के अनुसार राग-द्वेष परिणामों को स्व की मर्यादा में शामिल करके उनका स्वामी, कर्ता-भोक्तापने को शुद्धद्रव्य का निरूपण करनेवाला निश्चयनय कहा है और परद्रव्यों का स्वामित्व और कर्तृत्व-भोक्तृत्व को अशुद्धद्रव्य का निरूपण करनेवाला व्यवहारनय कहा है।
यह तो हम पहले ही कह आये हैं कि ऐसे कथन बहुत कम हैं और ये कथन नयों की मूलधारा से कुछ हटकर हैं।
एक ही भूमिका के ज्ञानियों के संयोगों और संयोगीभावों में महान अंतर हो सकता है। कहाँ क्षायिक सम्यग्दृष्टि सौधर्म इन्द्र और कहाँ सर्वार्थसिद्धि के क्षायिक सम्यग्दृष्टि अहमिन्द्र । सौधर्म इन्द्र तो जन्मकल्याणक में आकर नाभि के दरबार में ताण्डव नृत्य करता है और सर्वार्थसिद्धि के अहमिन्द्र दीक्षाकल्याणक, ज्ञानकल्याणक और मोक्षकल्याणक में भी नहीं आते, दिव्यध्वनि सुनने तक नहीं आते।
संयोग और संयोगीभावों में महान अन्तर होने पर भी दोनों की भूमिका एक ही है, एक सी ही है। अतः संयोगीभावों के आधार पर राग या वैराग्य का निर्णय करना उचित नहीं है, ज्ञानी अज्ञानी का निर्णय भी संयोग और संयोगीभावों के आधार पर नहीं किया जा सकता। पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव, पृष्ठ
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