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________________ ४१६ प्रवचनसार अनुशीलन 'पररूप शरीरादि मेरे हैं और मैं शरीरादिरूप हूँ' - जिनके इसप्रकार की ममत्वबुद्धि होती है; वे मुनि, मुनि नहीं; कुमारगी हैं। (सवैया इकतीसा) मैं हौं सुद्धजीव सरीरादि पर कौ सुनांहीं सरीरादि परद्रव्य सो न पुनि मेरौ है। सवै परभाव तैं सुभिन्न परमात्मा हौं एक ग्यानभावरूप मैं सु हम केरौ है ।। याही भांति ध्यान केसमै सुममिता मिटाई आप ही मैं आपनौं सुभाव तिनि हेरौ है। सोइ निज आपनै सुध्यान के करैया आपु परमार्थ तिन्हि तैं महा सु अति नेरौ है ।।१५३।। 'मैं स्वयं शुद्धजीव हूँ, शरीरादि परपदार्थों का मैं नहीं हूँ और शरीरादि परद्रव्य भी मेरे नहीं हैं।' इसप्रकार मैं सभी परभावों से भिन्न एक ज्ञानभावरूप परमात्मा हूँ - और वही ज्ञानस्वभाव मेरा है। इसप्रकार ध्यान के समय जिस जीव ने ममता मिटाकर अपने में ही अपने स्वभाव को देख लिया है, खोज लिया है; वह जीव ही स्वयं अपने में अपना ध्यान करनेवाला है और उसके लिए परमार्थ अत्यन्त निकट है। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इन गाथाओं के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "आत्मा स्वयं के अपराध के कारण ज्ञान स्वभाव को न जानता हुआ स्वयं ही परपदार्थों के प्रति मोह-राग-द्वेष के परिणाम करता है; किसी बाह्यसंयोग अथवा निमित्त के कारण नहीं करता। ज्ञानप्रधान कथन में आत्मा स्वयं के राग-द्वेष का ग्रहण-त्याग करता है; किन्तु परपदार्थ का ग्रहण-त्याग नहीं करता । इसप्रकार स्वयं के विकारी परिणाम का कर्ता आत्मा स्वयं है - ऐसा बताने वाले नय को यहाँ शुद्धद्रव्य के निरूपण स्वरूप निश्चयनय कहा है। उदयभाव स्वतत्त्व है - ऐसा बतानेवाला निश्चयनय है। १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-३८३ गाथा-१९०-१९१ ४१७ ___ यहाँ कहा है जो आत्मा शुद्ध द्रव्य के निरूपण स्वरूप निश्चयनय को न जानता हआ स्वयं का अपराध स्वयं से न मानकर पर से मानता है, वह निश्चयनय से दूर है। स्वयं के परिणाम स्वयं से होते हैं और परपदार्थों के परिणाम पर के कारण होते हैं - ऐसा न मानता हुआ स्वयं के परिणाम पर से होते हैं तथा पर के परिणाम स्वयं से होते हैं - ऐसा जो जीव मानता है, वह जीव निश्चयनय से अनजान रहता है और व्यवहारनय का मोह उत्पन्न करता है। हे भाई! विकारी परिणाम तू स्वतंत्र करता है - एकबार ऐसा नक्की तो कर! राग अथवा वैराग्य के परिणाम तू स्वतंत्र करता है - ऐसा बताकर तुम्हारी पर्याय को तुम्हारे पर्यायवान अर्थात् स्वभाव की ओर ले जाते हैं; संयोग और निमित्त की ओर नहीं ले जाते। जब जीव के परिणाम स्वतंत्र हैं तो परिणामी आत्मपदार्थ भी स्वतंत्र है - ऐसा हमारा कहने का आशय है।" इसप्रकार स्वज्ञेय तथा परज्ञेय का स्वतंत्रपने ज्ञान करके, विकार स्वयं से होता है - ऐसा ज्ञान करके, त्रिकाली स्वभाव की श्रद्धा-ज्ञान करना चाहिए और पश्चात् विशेष स्थिरता होने पर चारित्र की वीतरागी शुद्ध परिणति प्रगट करना चाहिए; किन्तु अज्ञानी जीव पर की क्रिया का कर्ता स्वयं को मानता है। परवस्तु के ग्रहण-त्याग में धर्म-अधर्म की कल्पना करता है। ___ इसप्रकार निश्चित होता है कि अशुद्धनय से अर्थात् संयोगीदृष्टि से संसार की प्राप्ति होती है। १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-३८४ २. वही, पृष्ठ-३८५ ३. वही, पृष्ठ-३८७ ४. वही, पृष्ठ-३८७ ५. वही, पृष्ठ-३८८ ६. वही, पृष्ठ-३८८ ७. वही, पृष्ठ-३८९
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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