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प्रकाशकीय जैन समाज के मूर्धन्य विद्वानों में तत्त्ववेत्ता डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। उनकी नवीनतम कृति प्रवचनसार अनुशीलन भाग-२ का प्रकाशन करते हुए हमें हार्दिक प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है।
समयसार अनुशीलन की लोकप्रियता ने प्रवचनसार अनुशीलन लिखने के लिए डॉ. भारिल्लजी को प्रेरित किया। स्वयं की रुचि एवं पाठकों की निरन्तर प्रेरणा से वीतराग-विज्ञान के संपादकीय रूप में प्रवचनसार अनुशीलन लिखना प्रारंभ हुआ, जिसका प्रथम भाग जनवरी २००५ में प्रकाशित होकर पाठकों तक पहुँच ही चुका है और दो वर्ष के अल्प अन्तराल में यह दूसरा भाग प्रस्तुत है।
प्रवचनसार का विषय गूढ, गम्भीर एवं सूक्ष्म है। इसे समझने के लिए बौद्धिक पात्रता तो चाहिए ही; विशेष रुचि एवं लगन के बिना उसे आसानी से समझना सहज नहीं है; अत: पाठकों को धैर्य पूर्वक अध्ययन करना नितान्त आवश्यक है।
विगत तीस वर्षों में आत्मधर्म और वीतराग-विज्ञान के सम्पादकीय रूप में आपने जो भी लिखा, वह सभी आज जिन अध्यात्म की अमूल्य निधि बन गया है और पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित होकर स्थाई साहित्य के रूप में प्रतिष्ठापित हो चुका है। सभी पुस्तकें लगभग हिन्दी में तो प्रकाशित होकर जन -जन तक पहुँच ही चुकी हैं, अन्य भाषा-भाषी लोगों की मांग को दृष्टिगत रखते हुए उनके गुजराती, मराठी, कन्नड़, तमिल तथा अंग्रेजी भाषाओं में भी अनुवाद होकर अनेक संस्करणों में प्रकाशित हो चुके हैं। उपरोक्त आठ भाषाओं में अब तक ४२ लाख से अधिक प्रतियों का प्रकाशन होना अपने आप में महत्त्वपूर्ण है।
डॉ. भारिल्ल द्वारा अब तक लगभग ७ हजार पृष्ठों की सामग्री लिखी जा चुकी है और लगभग १० हजार पृष्ठों का सम्पादित कार्य हो चुका है, जो सभी प्रकाशित है। लेखन कार्य में तो आप बेजोड़ हैं ही, वक्तृत्व शैली में भी आपको महारत हासिल है।
डॉ. भारिल्ल की बहुचर्चित कृतियों में परमभावप्रकाशक नयचक्र, समयसार अनुशीलन, धर्म के दशलक्षण, क्रमबद्धपर्याय, बारह भावना : एक अनुशीलन,
सत्य की खोज, तीर्थंकर भगवान महावीर और उनका सर्वोदय तीर्थ, छहढाला का सार, पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव, णमोकार महामंत्र : एक अनुशीलन, आत्मा ही है शरण, दृष्टि का विषय तथा पश्चाताप मुख्य है; जो पठनीय है। अब तक आपकी छोटी-बड़ी ६४ पुस्तकें प्रकाशित हैं। निरन्तर २३ वर्षों से विदेशी भूमि पर जाकर डॉ. भारिल्ल अध्यात्म का डंका बजा रहे हैं।
इसप्रकार आपके माध्यम से जिन आगम की अभूतपूर्व सेवा हो रही है। श्री अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत्परिषद् के आप राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। आप जैसे मनीषी विद्वान के चुने जाने से इस पद की गरिमा में चार चांद लग गए हैं।
आपकी साहित्य साधना से आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री स्वामी तो प्रभावित थे ही, दिगम्बर जैन सन्त सिद्धान्तचक्रवर्ती आचार्य श्री विद्यानन्दजी भी अत्यधिक प्रभावित हैं। आप लिखते हैं -
"डॉ. भारिल्लजी का बीसवीं शताब्दी के जैन इतिहास में अनन्य योगदान रहा है। विद्वद्वर्य महामनीषी पण्डित गोपालदासजी बरैया की परम्परा के वे अनुपम रत्न हैं। जैन तत्त्वज्ञान एवं अध्यात्म की सरल शब्दों में सूक्ष्म तार्किक व्याख्या करके उन्होंने देश-विदेश में व्यापक धर्म प्रभावना की है। वे दीर्घजीवी होकर इसीप्रकार साहित्य साधना कर पामर जीवों के उपकार में निमित्त बनें - ऐसी मंगल भावना है।"
इस पुस्तक की टाइपसैटिंग श्री दिनेश शास्त्री ने मनोयोगपूर्वक की है तथा आकर्षक कलेवर में मुद्रण कराने का श्रेय प्रकाशन विभाग के मैनेजर श्री अखिल बंसल को जाता है; अत: दोनों महानुभाव धन्यवाद के पात्र हैं।
प्रस्तुत संस्करण की कीमत कम करने में जिन दातारों ने आर्थिक सहयोग प्रदान किया है, उन्हें भी ट्रस्ट की ओर से हार्दिक धन्यवाद ।
सभी जिज्ञासु इस अनुशीलन का पठन-पाठन कर आत्मकल्याण का मार्ग प्रशस्त करें - इसी भावना के साथ - ५ अप्रैल, २००७
ब्र. यशपाल जैन, एम.ए.
प्रकाशन मंत्री पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट
जयपुर