SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 186
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६४ प्रवचनसार अनुशीलन हो सकता है ? यही कारण है कि यहाँ कहा है कि नये द्रव्यबंध का बंध पुराने द्रव्यबंध के साथ होता है और जीव के साथ मोह-राग-द्वेषादि भावबंध होता है। भावकर्म और द्रव्यकर्मों का परस्पर निमित्त-नैमित्तिक संबंध है, कर्ता-कर्म संबंध नहीं। द्रव्यकर्मों का जीव के साथ जो एकक्षेत्रावगाह संबंध होता है, उसे यहाँ विशिष्टतर विशेषण से संबोधित किया गया है। विशिष्टतर शब्द के माध्यम से आचार्य यह कहना चाहते हैं कि रागी जीव और पुद्गल कर्म के बीच निश्चय से तो कोई संबंध है ही नहीं; पर जो एकक्षेत्रावगाह संबंध है; वह भी विशेष प्रकार का है; क्योंकि एकक्षेत्रावगाह तो धर्मादि द्रव्यों के साथ भी है; वह वैसा नहीं, जैसा जीव और द्रव्यकर्मों में है। धर्मादि द्रव्यों के साथ जो एकक्षेत्रावगाह संबंध है, उसमें कर्मोदयादि का निमित्त नहीं है, कोई बंधन नहीं है; किन्तु द्रव्यकर्म और देहादि नोकर्म के साथ होनेवाले एकक्षेत्रावगाह में कर्मोदय निमित्त हैं और सुनिश्चित समय के लिए एक क्षेत्र में रहनेरूप बंधन है। ____ अनिर्णय की स्थिति में पड़े हुए संशयग्रस्त प्राणी के भय और दीनता का एक ही कारण है और यह है अन्य को अपने जीवन-मरण और सुख-दुःख का कारण मानना । इसीप्रकार इसके अभिमान का कारण भी यह मानना है कि मैं दूसरो को मार सकता हूँ, बचा सकता हूँ; सुखी-दु:खी कर सकता हूँ। ___'मैं दूसरों को मार सकता हूँ - इस मान्यता से उत्साहित होकर यह दूसरों को धमकाता है, अपने अधीन करना चाहता है। इसीप्रकार मैं दूसरों को बचा सकता हूँ' - इस मान्यता के आधार पर भी दूसरों को अपने अधीन करना चाहता है। सुखी-दु:खी कर सकने की मान्यता के आधार से भी इसीप्रकार की प्रवृत्तियाँ विकसित होती हैं। - आत्मा ही है शरण, पृष्ठ-१११ प्रवचनसार गाथा १७९ विगत गाथाओं में द्रव्यबंध और भावबंध का स्वरूप स्पष्ट कर यह बता दिया है कि द्रव्यबंध का हेतु भावबंध है। अब इस १७९वीं गाथा में यह स्पष्ट कर रहे हैं कि द्रव्यबंध का हेतु होने से भावबंध ही वास्तविक बंध है, निश्चयबंध है। गाथा मूलतः इसप्रकार है - रत्तो बंधदि कम्मं मुच्चदि कम्मेहिं रागरहिदप्पा। एसो बंधसमासो जीवाणं जाण णिच्छयदो ।।१७९।। (हरिगीत ) रागी बाँधे कर्म छूटे राग से जो रहित हैं। यह बंध का संक्षेप है बस नियतनय का कथन यह ।।१७९।। रागी आत्मा कर्म बाँधता है और राग रहित आत्मा कर्मों से मुक्त होता है - यह निश्चय से जीवों के बंध का संक्षेप जानो। यह गाथा इस प्रकरण के निष्कर्ष की गाथा है और इसमें दो टूक शब्दों में कह दिया गया है कि बंध के कारण एकमात्र रागादि भाव ही हैं। आचार्य अमृतचन्द्र इस गाथा के भाव को तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं___ "मोह-राग-द्वेष परिणत जीव ही नवीन द्रव्यकर्मों से बंधता है; वैराग्यपरिणत जीव कर्मों से नहीं बंधता । इसीप्रकार मोह-राग-द्वेष परिणत जीव नवीन द्रव्यकर्मों से मुक्त नहीं होता और वैराग्य परिणत जीव ही मुक्त होता है। राग परिणत जीव, सम्पर्क में आनेवाले नवीन द्रव्यकर्मों से और चिरसंचित पुराने द्रव्यकर्मों से बंधता ही है, मुक्त नहीं होता और वैराग्यपरिणत जीव सम्पर्क में आनेवाले नवीन द्रव्यकर्मों और पुराने द्रव्यकर्मों से मुक्त ही होता है, बंधता नहीं।
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy